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ग़ज़ल : - वो धुआं था रोशनी को खा गया

ग़ज़ल : - वो  धुआं था रोशनी को खा गया

छत से निकला आसमां पे छा गया ,

वो  धुआं था रोशनी को खा गया |

 

सब ज़बानें मजहबी खँजर हुईं ,

क्या पुनः दंगों का मौसम आ गया |

 

टहनियों पर तितलियों की लाश है ,

फूल जिसके हक में था वो पा गया |

 

आप अपसंस्कृति के निंदक थे कभी ,

आपको भी अब ये मंज़र भा गया |

 

जब बुजुर्गों के चरण छूते थे हम ,

दौर एक ऐसा अदब का था गया |

 

हम जमूरे की तरह मृतप्राय थे ,

खेल की कीमत मदारी पा गया |

 

कहकहों में आप जब मशगूल थे ,

बज़्म में चुपचाप शायर आ गया |

                                        (१६-०९-०४

 

 

 

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Comment

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Comment by Veerendra Jain on February 5, 2011 at 10:25pm
 Arun ji...ek aur sunder rachna...
Comment by Abhinav Arun on February 5, 2011 at 10:56am
शुक्रिया राणा जी |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on February 5, 2011 at 9:57am

सब ज़बानें मजहबी खँजर हुईं ,

क्या पुनः दंगों का मौसम आ गया |

बहुत सुंदर और सशक्त गज़ल।

कृपया ध्यान दे...

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