1-)
छू जाता है तन को मेरे।
कह जाता है मन को मेरे ।
उसको हरदम है कुछ कहना,
क्या सखि साजन ?
ना सखि नैना !
2-)
छूते है तन मन को मेरे ।
बिन बोले ही मेरे तेरे ।
मिल जाते हम सब के संग,
क्या सखि साजन ?
ना सखि रंग !
3-)
दिल को मेरे छू जाती है ।
भावनाओं को सहलातीं है ।
इन की नहीं है कोई म्यादे ,
क्या फरियादें ?
ना सखि यादें !
4-)
टिकट बिना भाग ये जाता ।
कोई वाहन इसे ना भाता ।
इसका नहीं है कोई तन ,
क्या सखि वेतन ?
ना सखि मन !
5-)
बिन तेरे कुछ मुझे न भाता ।
तू ही मेरा भाग्य विधाता ।
तुझ में रहती हर दम मगन,
क्या सखि साजन ?
ना सखि भगवन !
6-)
महिलाओं को दास बनाए ।
जो ना पाये वो पछताए ।
दिखता इस का रूप सलोना,
क्या सखि साजन ?
ना सखि सोना !
7-)
नहीं है इसका रूप सुहावन ।
आता जाता सबके आँगन ।
माखन रोटी ले कर भागा ,
क्या सखि साजन ?
ना सखि कागा !
8-)
फूलों से ये गंध चुराता ।
रस पीने को उत्सुक रहता ।
बैठा है पंकज में छिपकर ,
क्या सखि साजन ?
ना सखि मधुकर !
9-)
राखे मुझ को गले लगाकर।
कांधे अपने नेह लगा कर।
पुछो ना सखि उसका हाल ,
क्या सखि साजन ?
ना सखि साल !
10-)
गरमी में जब जी उकलाये।
झट पट याद उसी की आए ।
भारत हो या मक्का-मदीना ,
क्या सखि साजन ?
ना पुदीना !
11-)
जहां- तहां वो मिल ही जाता ।
बच्चों को भी अतिशय भाता ।
चट्टानें हों या हो बालू ,
क्या सखि भालू ?
ना सखि आलू !
कल्पना मिश्रा बाजपेई
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अदरणीया शाशी जी बहुत आभार आपका ।
बहुत सुन्दर प्रयास है आपको हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना जी ,
आदरणीय गिरिराज भण्डारी जी बहुत बहुत आभार आपका सर ।
आदरनीया कल्पना जी , कह मुकरियों के प्रयास के लिये आपको बधाई ॥
अदारनिया प्राची जी आप ने जो सुझाव भेजा है उस पर पूरी तरह से ध्यान दूँगी ।बहुत -बहुत धन्यवाद सादर ......
कहमुकरियों पर कलम आजमाई के लिए बधाई आ० कल्पना मिश्रा बाजपेयी जी
लेकिन तार्किकता की कसौटी पर ज़रा इन मुकरियों को देखिये
टिकट बिना भाग ये जाता ।
कोई वाहन इसे ना भाता ।
इसका नहीं है कोई तन ,.......................क्या ये बात साजन के लिए कह सकते हैं ?
क्या सखि साजन ?
ना सखि मन !
दिल को मेरे छू जाती है ।....................यहाँ तो साजन को स्त्रीलिंग ही बना दिया गया
भावनाओं को सहलातीं है ।................यहाँ भी साजन को स्त्रीलिंग बना दिया
इन की नहीं है कोई म्यादे ,................यहाँ साजन बहुवचन भी हो जाता है
क्या सखि साजन ?
ना सखि यादें !
महिलाओं को दास बनाए ।
जो ना पाये वो पछताए ।
मुझे मिला है भर कर दोना ,.........साजन के दोने भर मिलने की बात भी सार्थक नहीं प्रतीत होती... प्यार मिला हो तो पंक्ति से ऐसा ज़ाहिर होना चाहिए
क्या सखि साजन ?
ना सखि सोना !
नहीं है इसका रूप सुहावन ।
आता जाता सबके आँगन ।
दधि की मटकी ले कर भागा ,......................कागा दही की मटकी लेकर कैसी भाग सकता है , यह भी समझ नहीं आया
क्या सखि साजन ?
ना सखि कागा !
रखता है वो मेरा ध्यान ।
रखूँ में भी उसे सम्हाल ।
पुछो ना तुम उसका हाल ,
क्या सखि साजन ?
ना सखि साल !...........................यह कहमुकरी भी ज़बरदस्ती हुई प्रतीत होती है
विधाओं पर सार्थक प्रयास हो, यही शुभकामनाएं हैं
फिलहाल इस प्रयास पर बधाई
सादर.
tबहुत खूब कल्पना जी , क्या बात है । बधाई आपको ।
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