For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मैदानी हवाएँ .... (विजय निकोर)

मैदानी हवाएँ

 

 

समेट नहीं पाती हूँ चाह कर भी  कभी

अनमनी यादों की चँचल-सी धारा-गति

लौट-लौट आते हैं दर्द भरे धुँधले

अधबने अधजले सपने

छिपाए न छिपें अर्थहीन समर्थों से अश्रु मेरे

क्यूँ आते हो जगा जाते हो तुम आन्दोलन,

इस अथाह सागर में प्रिय रोज़ सवेरे-सवेरे ?

 

हो दिन का उजाला

भस्मीला कुहरा

या हो अनाम अरूप अन्धकार

तुम्हारी यादों का फैलाव पल-पल

स्वतन्त्र मैदानी अनदिखी हवाओं-सा

दूर ...  दूर ...  दूर तक

मेरी दर्दभरी गहरी अनसुनी पुकार-सा ...

 

अनगिनत, सुकोमल, अवचेतन भाव

यादों की कुहरीली सनसनी लहरें

मैदानी हवाओं में रेत के बगूलों-सी

देखते ही घुल-घुल जाती हैं जैसे

शून्य से शून्य में

उचटता है मन

चुपचाप .. अकेले में

 

एक ही गहरी उसाँस

खुल गई है दर्द की गहरी गाँठ

स्मृतिओं के आकृति-रूप

अपने में मुड़ रहे, जुड़ रहे ...जुड़ रहे

मैं उनको रोक नहीं पाती, बाँध नहीं पाती

विदा भी नहीं कर पाती

तुम्हारी तरह .... खो देती हूँ

 

मेरे भीतर के अपने में उस पल

मानो अकस्मात

कोई घनघोर दृश्य लिए

हमारा काल विभाजित हो जाता है

टुकड़ों-टुकड़ों में, और मैं बेचैन अकेली

गरम मैदानी हवा-सी

जाग्रत मूर्च्छा-सी ... दिशाहीन

 

भीतर के आवेगों से अनजाने, प्रिय

कितनी सरलता से कह देते थे तुम

कि भूल जाऊँ मैं तुमको ?

 

                     -------

                                   -- विजय निकोर

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

 

 

 

 

 

 

Views: 624

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on March 12, 2014 at 7:36am

रचना आपको अच्छी लगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ।

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्नपूर्णा जी।

 

सादर।

Comment by Vindu Babu on March 11, 2014 at 4:48pm
परम आदरणीय सर:

आज पुन: आपकी इस अद्वितीय अभिव्यक्ति की तह तक जाकर रसास्वादन करने का प्रयास किया...कितना मुश्किल है इस तरह से भावों को जीना और फिर अभिव्यक्त करना!

आपकी प्रस्तुतिकरण का ढंग सच में प्रणम्य है,बहुत गहराई रहती है।

रचना आपकी सार्वभौमिक सोच और अति संवेदनशीलता की द्योतक है.

आपके द्वार प्रयुक्त बिम्ब मुझे बहुत आकर्षित करते हैं.
हार्दिक बधाई आपको इस गम्भीर प्रस्तुति के लिए आदरणीय।
सादर
Comment by Priyanka singh on March 7, 2014 at 8:39pm

अनगिनत, सुकोमल, अवचेतन भाव

यादों की कुहरीली सनसनी लहरें

मैदानी हवाओं में रेत के बगूलों-सी

देखते ही घुल-घुल जाती हैं जैसे

शून्य से शून्य में

उचटता है मन

चुपचाप .. अकेले में

 

एक ही गहरी उसाँस

खुल गई है दर्द की गहरी गाँठ

स्मृतिओं के आकृति-रूप

अपने में मुड़ रहे, जुड़ रहे ...जुड़ रहे

मैं उनको रोक नहीं पाती, बाँध नहीं पाती

विदा भी नहीं कर पाती

तुम्हारी तरह .... खो देती हूँ

 

मेरे भीतर के अपने में उस पल

मानो अकस्मात

कोई घनघोर दृश्य लिए

हमारा काल विभाजित हो जाता है

टुकड़ों-टुकड़ों में, और मैं बेचैन अकेली

गरम मैदानी हवा-सी

जाग्रत मूर्च्छा-सी ... दिशाहीन.......

पूरी रचना ही लाजवाब है ...कैसे और किन शब्दों से इस रचना की तारीफ़ करुँ.... हर बार कि तरहा ये रचना भी दिल छू गयी ...... कई बार पढ़ ली अब तो और हर बार लगा जैसे मैं खुद को पढ़ रही हूँ ......

आदरणीय सर .....कैसे तारीफ़ करू और किन शब्दों में ......मैं निशब्द हूँ .....ख़ाली हो गयी हूँ जैसे ......बस कमाल, कमाल, कमाल..... लाजवाब.... 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 5, 2014 at 8:36am

अनगिनत, सुकोमल, अवचेतन भाव

यादों की कुहरीली सनसनी लहरें

मैदानी हवाओं में रेत के बगूलों-सी

देखते ही घुल-घुल जाती हैं जैसे

शून्य से शून्य में

उचटता है मन

चुपचाप .. अकेले में

बहुत ही गहरे, मन को छू जाते हुए भाव से संजोयी पंक्तियाँ  बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी

Comment by Vindu Babu on March 5, 2014 at 8:36am

अरे! ये तो gender ही बदल गया आपकी अभिव्यक्ति का आदरणीय:)

वास्तव में अभिव्यक्ति होती ही पूर्ण मुक्त है...जैसाकि आपने सिद्ध किया है।

विस्मित करने वाली बात यह है कि आप मानव हृदय की पीड़ा को आप अपनाकर अभिव्यक्त कितनी सहजता से व्यक्त करते हैं।

रचना को पूरी तरह समझने और रसास्वादन करने पुनः आउंगी...तब तक के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय इस सफल रचना के लिए।

सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 4, 2014 at 6:17pm

आपकी सभी रचनाए मर्मस्पर्शी होती है | स्नेह भरे वेदना के स्वर प्रस्फुटित होते है | ऐसी ही सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय श्री विजय निकोरे जी 

Comment by annapurna bajpai on March 2, 2014 at 11:35pm

 बहुत गहरी रचना है , बधाई आपको आ0 निकोर जी । 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । हो सकता आपको लगता है मगर मैं अपने भाव…"
13 hours ago
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"अच्छे कहे जा सकते हैं, दोहे.किन्तु, पहला दोहा, अर्थ- भाव के साथ ही अन्याय कर रहा है।"
15 hours ago
Aazi Tamaam posted a blog post

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्यावैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर…See More
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
yesterday
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
Tuesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
Monday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
Monday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service