मैदानी हवाएँ
समेट नहीं पाती हूँ चाह कर भी कभी
अनमनी यादों की चँचल-सी धारा-गति
लौट-लौट आते हैं दर्द भरे धुँधले
अधबने अधजले सपने
छिपाए न छिपें अर्थहीन समर्थों से अश्रु मेरे
क्यूँ आते हो जगा जाते हो तुम आन्दोलन,
इस अथाह सागर में प्रिय रोज़ सवेरे-सवेरे ?
हो दिन का उजाला
भस्मीला कुहरा
या हो अनाम अरूप अन्धकार
तुम्हारी यादों का फैलाव पल-पल
स्वतन्त्र मैदानी अनदिखी हवाओं-सा
दूर ... दूर ... दूर तक
मेरी दर्दभरी गहरी अनसुनी पुकार-सा ...
अनगिनत, सुकोमल, अवचेतन भाव
यादों की कुहरीली सनसनी लहरें
मैदानी हवाओं में रेत के बगूलों-सी
देखते ही घुल-घुल जाती हैं जैसे
शून्य से शून्य में
उचटता है मन
चुपचाप .. अकेले में
एक ही गहरी उसाँस
खुल गई है दर्द की गहरी गाँठ
स्मृतिओं के आकृति-रूप
अपने में मुड़ रहे, जुड़ रहे ...जुड़ रहे
मैं उनको रोक नहीं पाती, बाँध नहीं पाती
विदा भी नहीं कर पाती
तुम्हारी तरह .... खो देती हूँ
मेरे भीतर के अपने में उस पल
मानो अकस्मात
कोई घनघोर दृश्य लिए
हमारा काल विभाजित हो जाता है
टुकड़ों-टुकड़ों में, और मैं बेचैन अकेली
गरम मैदानी हवा-सी
जाग्रत मूर्च्छा-सी ... दिशाहीन
भीतर के आवेगों से अनजाने, प्रिय
कितनी सरलता से कह देते थे तुम
कि भूल जाऊँ मैं तुमको ?
-------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना आपको अच्छी लगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्नपूर्णा जी।
सादर।
अनगिनत, सुकोमल, अवचेतन भाव
यादों की कुहरीली सनसनी लहरें
मैदानी हवाओं में रेत के बगूलों-सी
देखते ही घुल-घुल जाती हैं जैसे
शून्य से शून्य में
उचटता है मन
चुपचाप .. अकेले में
एक ही गहरी उसाँस
खुल गई है दर्द की गहरी गाँठ
स्मृतिओं के आकृति-रूप
अपने में मुड़ रहे, जुड़ रहे ...जुड़ रहे
मैं उनको रोक नहीं पाती, बाँध नहीं पाती
विदा भी नहीं कर पाती
तुम्हारी तरह .... खो देती हूँ
मेरे भीतर के अपने में उस पल
मानो अकस्मात
कोई घनघोर दृश्य लिए
हमारा काल विभाजित हो जाता है
टुकड़ों-टुकड़ों में, और मैं बेचैन अकेली
गरम मैदानी हवा-सी
जाग्रत मूर्च्छा-सी ... दिशाहीन.......
पूरी रचना ही लाजवाब है ...कैसे और किन शब्दों से इस रचना की तारीफ़ करुँ.... हर बार कि तरहा ये रचना भी दिल छू गयी ...... कई बार पढ़ ली अब तो और हर बार लगा जैसे मैं खुद को पढ़ रही हूँ ......
आदरणीय सर .....कैसे तारीफ़ करू और किन शब्दों में ......मैं निशब्द हूँ .....ख़ाली हो गयी हूँ जैसे ......बस कमाल, कमाल, कमाल..... लाजवाब....
अनगिनत, सुकोमल, अवचेतन भाव
यादों की कुहरीली सनसनी लहरें
मैदानी हवाओं में रेत के बगूलों-सी
देखते ही घुल-घुल जाती हैं जैसे
शून्य से शून्य में
उचटता है मन
चुपचाप .. अकेले में
बहुत ही गहरे, मन को छू जाते हुए भाव से संजोयी पंक्तियाँ बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी
अरे! ये तो gender ही बदल गया आपकी अभिव्यक्ति का आदरणीय:)
वास्तव में अभिव्यक्ति होती ही पूर्ण मुक्त है...जैसाकि आपने सिद्ध किया है।
विस्मित करने वाली बात यह है कि आप मानव हृदय की पीड़ा को आप अपनाकर अभिव्यक्त कितनी सहजता से व्यक्त करते हैं।
रचना को पूरी तरह समझने और रसास्वादन करने पुनः आउंगी...तब तक के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय इस सफल रचना के लिए।
सादर
आपकी सभी रचनाए मर्मस्पर्शी होती है | स्नेह भरे वेदना के स्वर प्रस्फुटित होते है | ऐसी ही सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय श्री विजय निकोरे जी
बहुत गहरी रचना है , बधाई आपको आ0 निकोर जी ।
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