तुम बिन
तन्हा-तन्हा सी साँसें
पल-पल गुजरता रहा
वरष के जैसा
बेचैनी की धीमी-धीमी आग में
बसंत बीत ही गया
न जाने कैसे कटेगा..?
रंगों का महीना
तुम बिन तो है
बे-रंग सा फाल्गुन
दिन तो काटने ही हैं
इस तरह क्यों न थका लूँ तन को
कि शाम तक
चूर हो जाय !
ये तन्हा रातें
बिन करवट ही
बीत जायें ।
इस तन्हाई को मेरे भाग्य ने ही सौंपा है मुझे
क्या तुम्हें भी..?
जितेन्द्र 'गीत'
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आ0 जीतेन्द्र भार्इ जी, बहुत ही सुन्दर रचना। हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,
बहुत बढ़िया , आ0 जीतेन्द्र जी क्या खूब भाव पिरोये है , बधाई आपको ।
रचना पर आपकी सराहना हेतु आपका हृदय से आभार आदरणीय नीरज जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आपने रचना के भाव को छुआ, आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय एस.सी. ब्रह्मचारी जी. अपना स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
रचना पर आपकी सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीया कल्पना जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आदरणीय डा.आशुतोष जी, रचना आपको रुचिकर लगी आपका तहे दिल से आभारी हूँ, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आदरणीय प्रदीप जी, रचना पर आपकी उपस्थिति मन को बहुत ख़ुशी व् लेखनकर्म को मनोबल देती है. अपना स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
रचना आपको पसंद आई, यह लेखनकर्म की सार्थकता का प्रमाण है आदरणीया सरिता जी, स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय गिरिराज जी, स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
आपका का हार्दिक आभार आदरणीय श्यामनारायण जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
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