२१२१ २१२२ २१२२
हम भी अखबारों में जब इक दिन छपे थे
दोसतों की शक्ल पर बारह बजे थे
अब सुनो मंजिल तुम्हें हम क्या बताएं
इक तुम्हारे वास्ते क्या-क्या सहे थे
घर भी छूटा द्वार भी औ जाने क्या-क्या
पर उमीदों के सहारे भी घने थे
दिन गुजारे गम को खाकर आंसू पीकर
इस तरह किरदार अपना हम गढ़े थे
याद है हमको अभी तक सब खिलाफ़त
किस कदर अपने सभी दुश्मन बने थे
और वो इक वाकया था खूब यारो
जब चने के झाड़ पर हम भी चढ़े थे
संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर आपने सही कहा मैं २१२२ २१२२ २१२२ ही लिखना चाह रही थी पर शायद जल्दी में ग़ज़ल पोस्ट करने से पहले ध्यान नहीं दे सकी .आशा है कि आप मुझे इस चूक के लिए माफ़ करेंगे .
और बातें तो हो गयीं. बह्र के रुक्न को सही लिा है क्या आपने ?
संंभवतः २१२२ २१२२ २१२२ लिखना चाहा होगा आपने.
आदरणीय वीनस जी मजाहिया का तो सवाल ही नहीं ,रही बात संजीदा की तो मैं आपके सुझाव पर ध्यान दूंगी ..कोशिस करुँगी कि प्रस्तुत ग़ज़ल को बेहतर बना सकूँ ..आपके महत्वपूर्ण सुझाव हेतु आपका हार्दिक आभार .
ग़ज़ल न मजाहिया हो पाई न संजीदा रह सकी ...
फिर से काम करें तो शायद कुछ बेहतर अशआर हो जाएँ
आ० जीतेन्द्र जी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया .
बहुत लाजवाब गजल कही आपने आदरणीया संजू जी
घर भी छूटा द्वार भी औ जाने क्या-क्या
पर उमीदों के सहारे भी घने थे
दिन गुजारे गम को खाकर आंसू पीकर
इस तरह किरदार अपना हम गढ़े थे
यह शेर बहुत खास हुए , ढेरों बधाइयाँ आपको
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