तोड़ नीड़ की परिधि
सारी वर्जनाएं
भुला नीति रीति
लांघ कर सीमाएं
छोड़ संयम की कतार
दे परवाज़ को विस्तार
वशीकरण में बंधा
लिए एक अनूठी चाह
कर बैठा गुनाह
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा
**************
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
प्रिय प्राची जी प्रस्तुति पर आपका अनुमोदन मिला दिल से आभारी हूँ .
हार्दिक धन्यवाद अरुण श्रीवास्तव जी.
अच्छा लिखा है आपने ! :-))
बहुत- बहुत शुक्रिया राम शिरोमणि जी आपको रचना पसंद आई.
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु///////ज़ोरदार कहन.. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीया।।।।। हार्दिक बधाई आपको
बहुत- बहुत शुक्रिया आ ० अखिलेश जी रचना के अनुमोदन हेतु.
आदरणीया राजेशकुमारीजी,
न समझदारी है, और न होश,
किसी काम का नहीं है जोश।
परिणाम वही होना था जो हुआ । अच्छी रचना , हार्दिक बधाई ।
बहुत- बहुत शुक्रिया जीतेन्द्र जी, रचना ने आपको प्रभावित किया | हार्दिक आभार.
बहुत ही गहरी व् प्रभावशाली रचना, आदरणीया राजेश जी आपको हार्दिक बधाई
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