2122 1122 1122 22
अब्र चाहत के जहाँ दिल से करम करते हैं
ऐसी झीलों में मुहब्बत के कँवल झरते हैं
मजहबी छीटें रकाबत के जहाँ पर गिरते
उन तड़ागों के बदन मैले हुआ करते हैं
बस गए हैं जो बिना खौफ़ विषैले अजगर
वादियों में वो सभी आज जह्र भरते हैं
मस्त भँवरों की शरारत की यहाँ अनदेखी
फूल पत्तों पे चढ़ी दर्द भरी परते हैं
सौदे बाजों की बगल में हुई आहट सुनकर
धीमे-धीमे वो चिनारों के शज़र मरते हैं
उन्स के फूलों भरी कल थी जहाँ पगडंडी
आज रस्ते वो सभी खारो से संवरते हैं
एक ही घर में पले मिलके रहे जो प्राणी
छोड़ अपनों की कतारों को अलग चरते हैं
दर्द जीवन का छुपाये हुए हैं जो साग़र
रूप ग़ज़लों का वही आज यहाँ धरते हैं
उनको किस्मत के भरोसे न मिलेगी मंजिल
शख्स जो दूर किनारों पे खड़े डरते हैं
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रकाबत =शत्रुता
उन्स =चाहत
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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Comment
प्रिय प्राची जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना से हर्षित हूँ आपको शेर प्रभावित कर सके मेरा लिखा सार्थक हुआ तहे दिल से आपका बहुत बहुत शुक्रिया ,आपने जो तड़ागों शब्द और रकाबत शब्द की बात कही है ,पहले मैंने तलाबों शब्द रखा था किन्तु संशय था की तालाबों को तलाबों कर सकते हैं या नहीं बस फिर उसे छोड़ कर तड़ागों लिखा है यह बात में ग़ज़लकारों से कन्फर्म करुँगी की तलाबों चलेगा या नहीं तभी ठीक करुँगी ,वैसे मेरे संज्ञान में तो ऐसा नियम तो कोई है नहीं की उर्दू के साथ यदि कोई हिंदी शब्द ले रहें हैं तो वो मान्य नहीं होगा बाकी विद्वद्जनो की राय की प्रतीक्षा है.
सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० राजेश जी
उन्स के फूलों भरी कल थी जहाँ पगडंडी
आज रस्ते वो सभी खारो से संवरते हैं .................बहुत सुन्दर
उनको किस्मत के भरोसे न मिलेगी मंजिल
शख्स जो दूर किनारों पे खड़े डरते हैं ..................बिलकुल सही कहा
मजहबी छीटें रकाबत के जहाँ पर गिरते
उन तड़ागों के बदन मैले हुआ करते हैं.....................रकाबत एक उर्दूं का शब्द और तड़ागों एक तत्सम शब्द; क्या एक ही शेर में इतना कंट्रास्ट लेना सही है?
इस ग़ज़ल पर मेरी दिली बधाई स्वीकारें
सादर.
आ० सौरभ जी, ग़ज़ल पर उत्साह वर्धन करती हुई आपकी प्रतिक्रिया मिली तहे दिल से आभार आपका.
उन्स के फूलों भरी कल थी जहाँ पगडंडी
आज रस्ते वो सभी खारो से संवरते हैं .. . .
जय हो !!
आपकी इस ग़ज़ल पर ढेर सारी बधाई. शुभ-शुभ
मुकेश वर्मा जी बहुत- बहुत शुक्रिया.
सादर आभार आ० गिरिराज भंडारी जी ,अब इस ग़ज़ल को आ० वीनस जी की इस्स्लाह के अनुसार बह्र पर कसा है पुनः अवलोकन की गुजारिश है.
आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल बहुत सुन्दर कही है आपने , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ आ. वीनस भाई की सलाह पर गौर फरमाइयेगा ॥
वीनस केसरी जी की बात से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ. बे'हर है २१२२ २१२२ २१२२ २१२.. पर आपकी बेहतरीन कोशिश को भी दाद देनी पड़ेगी..लिखते रहिए
आ० वीनस जी ग़ज़ल पर आपका मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ इसे दुरुस्त करने की कोशिश करती हूँ ,बहुत- बहुत शुक्रिया आपका.
ग़ज़ल अपने कथ्य से प्रभावित करती है जिसके लिए आपको बधाई प्रेषित है परन्तु आपने बहर भी सही नहीं लिखी है ...इता दोष भी दिख रहा है ... और लय अनुसार आपने इस ग़ज़ल को जिस बहर पर लिखा है उसके अनुसार कई अशआर बेबहर हो जा रहे हैं
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