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चिन्दियाँ इतिहास की, रूहों तलक फिर जाएँगी ग़ज़ल (राज )

२१२२  २१२२ २१२२  २१२ 

रोक लो तूफ़ान चिंगारी भड़क फ़िर जाएँगी

नफ़रती लपटें जमीं से अर्श तक फ़िर जाएँगी

 

इन दरारों पे जरा आँचल बिछा कर छाँव दो   

आंच पाकर बैर की वरना दहक फ़िर जाएँगी

 

अम्न- ओ-इंसानियत से चूर थी  गलियाँ यहाँ 

देख वो अपने उसूलों से भटक फ़िर जाएँगी  

 

खाई जाती थी कसम जो  दोस्ती के दरमियाँ 

उस वफ़ा की पाक़  मीनारें चटक  फ़िर जाएँगी

 

फिर झडेंगे शाखों से पत्ते ख़जां आये बिना   

बिजलियाँ जब उन दरख्तों पे कड़क फ़िर जाएँगी

 

यास में ग़म दर्द की ख़ुर्शीद ढक ता  जाएगा

चैन की खामोश दीवारें दरक  फ़िर जाएँगी

 

 

जल उठेगा ताज सुलगेगा हिमालय का बदन 

चिन्दियाँ इतिहास की, रूहों तलक फ़िर जाएँगी

 

ख़त्म हो गर ‘राज’ इनकी दुश्मनी की फितरतें 

ये  फ़सुर्दा क्यारियाँ दिल की महक फिर जाएँगी 

अर्श=आकाश

ख़जां=पतझड़

ख़ुर्शीद=सूर्य

यास=धुंध

फ़सुर्दा=मुरझाई हुई  

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

_____________

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Comment by rajesh kumari on April 11, 2014 at 7:53am

आ० अन्नापूर्णा बाजपेयी जी आपकी सराहना और इस होंसलाफ्जाई का तहे दिल से शुक्रिया. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 11, 2014 at 7:52am

सचिनदेव जी, आपको ग़ज़ल पसंद आई इस शेर ने आपको प्रभावित किया मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से शुक्रिया आपका. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 11, 2014 at 7:50am

आ० गिरिराज भंडारी जी ग़ज़ल के अशआर आपको पसंद आयें तहे दिल से आभारी हूँ मेरा लिखना सार्थक हुआ. 

Comment by annapurna bajpai on April 10, 2014 at 10:23pm

अम्न- ओ-इंसानियत से चूर थी  गलियाँ यहाँ 

देख वो अपने उसूलों से भटक फ़िर जाएँगी  

 

खाई जाती थी कसम जो  दोस्ती के दरमियाँ 

उस वफ़ा की पाक़  मीनारें चटक  फ़िर जाएँगी.................. बहुत खूब आ0 राजेश कुमारी जी आपकी गजल तो दिल ले गई ,   बधाई आपको । 

 

Comment by Sachin Dev on April 10, 2014 at 2:35pm

जल उठेगा ताज सुलगेगा हिमालय का बदन 

चिन्दियाँ इतिहास की, रूहों तलक फ़िर जाएँगी............. बहुत खूब शेर आदरणीय राजेश कुमारी जी, एक बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई आपको ! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2014 at 7:02pm

आदरणीया राजेश जी , बहुत उम्दा गज़ल कही है , आपको दिली बधाइयाँ !! 

रोक लो तूफ़ान चिंगारी भड़क फ़िर जाएँगी

नफ़रती लपटें जमीं से अर्श तक फ़िर जाएँगी

 

इन दरारों पे जरा आँचल बिछा कर छाँव दो   

आंच पाकर बैर की वरना दहक फ़िर जाएँगी

ख़त्म हो गर ‘राज’ इनकी दुश्मनी की फितरतें 

ये  फ़सुर्दा क्यारियाँ दिल की महक फिर जाएँगी 

                                                           तीनो अशाअर के लिये अनेको बधाइयाँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 9, 2014 at 3:06pm

बहुत- बहुत शुक्रिया  इमरान भाई जी, बह्र में गड़बड़ हो रही थी आपने सही ध्यान दिलाया ,इसको दुरुस्त किया है |

Comment by इमरान खान on April 9, 2014 at 1:36pm
गज़ल के भाव अच्छे हैं, बह्र साधने में कुछ गड़बड़ हो गई लगती है। आखिरी रुक्न 22 की जगह 212 तो नहीं?

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 9, 2014 at 9:57am

प्रिय गीतिका ओबीओ पर आपका पुनः स्वागत है इस अंतराल में आपको बहुत मिस किया.आपको ग़ज़ल का ये अशआर प्रभाव  शाली लगा ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ|   

Comment by वेदिका on April 9, 2014 at 9:42am
जल उठेगा ताज सुलगेगा हिमालय गुपचुप
चिन्दियाँ इतिहास की, रूहों तलक जाएँगी
बेहद जानदार शेअर है गजल का....

इस दौर में सतर्क करती हुयी सधी गजल पर शुभकामनाएं आ0 राजेश दीदी!

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