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रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही (ग़ज़ल 'राज')

2122   2122     212

वक़्त की रफ़्तार तो पैहम  रही

जिंदगी की लौ मगर मद्धम रही

 

बर्फ बनकर अब्र जो है गिर रहा 

पीर की बहती नदी भी जम रही

 

ग़म भरे अशआर जिसमे थे लिखे

धूप में भी वो ग़ज़ल कुछ नम रही

 

टूट के बिखरे सभी वो आईने

रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही 

 

वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया

सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही

 

कैसे कह दें वो जहाँ में खुश रहे

आँखे उनकी तो सदा पुरनम रही

 

क्यों दरारें फिर पड़ी उसके निहाँ

जब झड़ी बरसात की झम-झम रही

 

धूप में गुजरी कभी या छाँव में

जिंदगी खद्दर कभी रेशम रही

 

मुफ़लिसी का दर्द वो समझा कहाँ

जब तलक दौलत चमक चम-चम रही

________________________

 

 मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

 पैहम =निरंतर 

अब्र =बादल 

मुफ़लिसी =गरीबी ,निर्धनता ,या अभाव का भाव 

निहाँ=अन्दर 

 

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Comment

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Comment by rajesh kumari on April 20, 2014 at 9:00pm

प्रिय राम शिरोमणि जी ग़ज़ल आपको पसंद आई ,आपका तहे दिल से शुक्रिया. 

Comment by ram shiromani pathak on April 20, 2014 at 4:26pm

वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया

सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही///////////////वाह वाह वाह आदरणीया राजेश कुमारी जी  ……  बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on April 16, 2014 at 5:06pm

आदरणीया राजेशकुमारीजी .

बड़े ही सुंदर तरीके से उदाहरण सहित समझाया आपने, धन्यवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 16, 2014 at 4:49pm

आ० अखिलेश ग़ज़ल की सराहना के लिए दिल से शुक्र गुजार हूँ ,आप जिस अशआर की बात कर रहे हैं उसके भाव पूर्णतः स्पष्ट हैं ,गौर कीजिये सूखी धरती में दरारें पड़ती हैं या गीली में -----बरसात में भी यदि दरारें पड़ रही हैं तो बरसात में कोई तो खोट होगा ?इसी हैरानी के लिए उला में क्यों इस्तेमाल किया गया है --शायद मैं स्पष्ट कर पाई ....इसका बिम्ब उस व्यक्ति के लिए दिया हैजिसको प्रेम की तो कमी नहीं है फिर भी वो व्यथित है क्यों ?

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on April 16, 2014 at 4:37pm

आदरणीया राजेशकुमारीजी .

गेयता , प्रवाह और भाव की दृष्टि से सबसे खूबसूरत गज़ल । हार्दिक बधाई 

क्यों दरारें फिर पड़ी उसके निहाँ

जब झड़ी बरसात की झम-झम रही

झमाझम बारिश में दरार की संभावना स्वाभाविक है इसलिए  पहली पंक्ति में "क्यों" शब्द खटक रहा है , पूरे शेर को पढ़ो तो आपस मे ही  विरोधाभास है। या शायद मैं ही गलत हूँ। वैसे गज़ल की जानकारी मुझे नहीं है मैं सिर्फ अर्थ और भाव में जाने का प्रयास करता हूँ।

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 16, 2014 at 1:48pm

आ० डॉ आशुतोष जी अभिभूत करती हुई आपकी इस प्रतिक्रिया से आश्वस्त भी हुई कि ग़ज़ल अपनी बात कहने में सफल हुई ,इस होंसलाफ्जाई के लिए तहे दिल से आभार आपका. 


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Comment by rajesh kumari on April 16, 2014 at 1:45pm

चन्द्र शेखर जी,ग़ज़ल आपको पसंद आई तहे दिल से आभार आपका.  

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 16, 2014 at 1:11pm

आदरणीया राज जी ..इस ग़ज़ल की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम होगी हर शर एक से बढ़कर एक 

टूट के बिखरे सभी वो आईने

रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही 

वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया

सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही.....जवाब नहीं इस शेर का 

धूप में गुजरी कभी या छाँव में

जिंदगी खद्दर कभी रेशम रही....यथार्थ 

मुफ़लिसी का दर्द वो समझा कहाँ

जब तलक दौलत चमक चम-चम रही...पूरी तरह सहमत हूँ ...मेरी तरफ से आपको हार्दिक शुभकामनाएं सादर 

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 16, 2014 at 1:02pm

टूट के बिखरे सभी वो आईने// वाह्ह क्या शेर है, आ0। अच्छी गजल के लिए दाद!


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Comment by rajesh kumari on April 15, 2014 at 3:19pm

सचिन देव जी आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से आभारी हूँ| 

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