अपनों नें जो मुझपर फेंका पत्थर है
वो गैरों के फूलों से तो बेहतर है
दुनिया समझी थी वो कोई शायर है
जिसका दामन मेरे अश्कों से तर है
ऐ खुशियों तुम सावन बनकर मत आना
पिछली बारिश ने तोडा मेरा घर है
भूखा मंदिर जायेगा क्या पायेगा
रोटी बन पाता क्या संगेमरमर है
धरती सौ हिस्सों में बाँटो होगा क्या
पक्षी का तो आना जाना उड़कर है
चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में
इस बस्ती में आंधी आने का डर है
दुःख रेतीले पर्वत सा ढह जायेगा
अपना दिल भी तो तूफानों का घर है
भुवन निस्तेज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
दुःख रेतीले पर्वत है ढह जायेंगे
जीने वालों के तूफ़ानी तेवर है.............बहुत खूब.
अच्छा प्रयास है! आपको हार्दिक बधाई!
ग़ज़ल की बहर का भी जिक्र किया होता तो मुझ जैसे छात्रों को भी समझने-सीखने में आसानी होती.
सुंदर गजल , बहुत बधाई आपको ।
हार्दिक बधाई आ. भुवन जी , सुन्दर गज़ल कही है
चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में
इस बस्ती में आंधी आने का डर है............बहुत बहुत बधाई आदरणीय भुवन जी
चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में
इस बस्ती में आंधी आने का डर है,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, शानदार बात कही है .
आ. भुवन भाई , सुन्दर गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ॥
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई |
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