रह गयी कुछ है यही ग़र रह गयी
घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी
ज़िन्दगी तक उसकी होकर रह गयी
अपने हिस्से की ये चादर रह गयी
वो मुझे बस याद आया चल दिया
शाम मेरी याद से तर रह गयी
तृप्ति ने बोला बकाया काम है
और तृष्णा घर बनाकर रह गयी
नाव जब डूबी तो बोला नाख़ुदा
थी कमी सूई बराबर रह गयी*
बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया
कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी
भुवन निस्तेज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आपका सादर आभार....
आपकी ग़ज़ल पर एक बार आ चुका हूँ लेकिन तब मसला बह्र को लेकर था. ग़ज़ल के शेरों से बात उभर कर आवे इसकी ओर भी ध्यन देना आवश्यक है. यानि संप्रषणीयता भी हो. इस प्रस्तुति के लिए बधाई.
सादर
आदरणीय rajesh kumari जी, व Dr Ashutosh Mishra जी आप लोगों का सादर आभार ...
तृप्ति ने बोला बकाया काम है
और तृष्णा घर बनाकर रह गयी आदरणीय भुवन जी सभी शेर एक से बढ़कर एक है ..मुझे आपका यस शेर बहुत पसंद आया..तहे दिल बढ़ाई के sath
बहुत अच्छी ग़ज़ल लिखी है दिल से दाद कबूलें -----उनके आने से बनी मेरी ग़ज़ल ----कैसा रहेगा ?.
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, गिरिराज भंडारी जी, कृष्ण सिंह पेला जी व अरुन शर्मा 'अनंत' जी आप लोगों का बेहद शुक्रिया..
यदि मकते को ऐसा करें तो कैसा रहेगा कृपया सुझाव दें, शायद इससे बह्र की समस्या भी निकल जाये और तकबुल-ए-रदीफ़ दोष भी निराकरण हो जाये...
बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया
कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी
आदरणीय भुवन निस्तेज जी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर बहुत ही बढ़िया बन पड़े हैं मेरी ओर से दाद कुबूल फरमाएं. अंतिम शे'र में तकाबुले रदीफ़ का दोष है कृपया देख लें.
अादरणीय साैरभ जी से मैं सहमत हूँ । अा भुवन जी बह्र या मात्रा में काेइ समस्या नहीं । सभी शेर काविले तारीफ हैं । फिर भी मतले में मिसरा ए उला थाेडा सहज हाेता ताे सायद अभिव्यक्ति अाैर भी सुन्दर हाेती । इसी तरह पाँचवे शेर में भी ।
आदरणीय सौरभ भाई , आपने सही कहा है , और को औ लिखने से मिसरा बह्र मे आ जायेगा , और लिखने की वज़ह से मिसरा बेबह्र लग रहा है , आ, भुवन जी , और को औ कर लीजियेगा ॥
परम आदरणीय गिरिराज भंडारी जी व सौरभ पाण्डेय जी मेरी कही ग़ज़ल के मिसरों पर आप जैसे महर्षियों के इस विमर्श से मुझ में निरंतर ऊर्जा का संचार हो रहा है.
मैं शायद आदरणीय सौरभ जी के मुताबिक तक्तीअ कर रहा था.
सादर
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