नयनों की इस झील का, कितना निर्मल नीर।
बूँद बूँद कहती रही, देखो तल की पीर॥
वो आती हैं जब यहाँ, होता है आभास!
तपते पग को ज्यों मिले,पथ पर कोमल घास!!
मन शुक फिर बनने लगा,चखने चला रसाल !!
कितना मोहक रूप है,कितने सुन्दर गाल!!
केश कहूँ या तरु सघन,होता है यह भ्राम!!
इन केशों की छाँव में,कर लूँ मैं विश्राम!!
प्रेममयी इस झील का,अविरल मंद प्रवाह!
इसकी परिधि अमाप है,और नहीं है थाह!!
रंगों की वर्षा हुई,अनुपम यह अभिसार!!
फाग गा रही प्रकृति भी,करके नव श्रृंगार!!
ध्यान मग्न रहता सदा,प्रतिदिन आठो याम!
वेणु बजाते आइये,मेरे गृह भी श्याम!
कण कण में है वो बसे,इधर उधर चहुँ ओर!
नटखट कान्हा,कृष्ण या,कह लो माखनचोर!!
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मौलिक/अप्रकाशित
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
Comment
नयनों की इस झील का, कितना निर्मल नीर।
बूँद बूँद कहती रही, देखो तल की पीर॥.... . .
बहुत सुन्दर ! बूँद-बूँद लिखने की आदत डालें.
द्वंद्व समास की दो संज्ञाओं के मध्य और संज्ञाओं की आवृति हो जिनकी क्रिया एकवचन की बने तो उनके मध्य हाइफ़न होना ही है.
वो आती हैं जब यहाँ, होता है आभास!
तपते पग को ज्यों मिले,पथ पर कोमल घास!!
दूसरे पद पर और समय दिये होते. यथा, तपते पथ पर ज्यों मिले, पग को कोमल घास..
ऐसा क्यों किया गया. इस पर आशा है मनन करेंगे.
मन शुक फिर बनने लगा,चखने चला रसाल !!
कितना मोहक रूप है, कितने सुन्दर गाल!!
पहला पद यों हो तो क्या बुरा - मन सुग्गा फिर उड़ चला, चखने चला रसाल
लेकिन, दूसरा पद पहले पद के साथ क्या सम्बन्ध बना पारहा है ? यों पद का भावार्थ समझ में आजाना एक बात है और छंद का संप्रेषणीय होना दूसरी बात. यहाँ दूसरी बात ही मुख्य है.
केश कहूँ या तरु सघन,होता है यह भ्राम!!
इन केशों की छाँव में,कर लूँ मैं विश्राम!!
ठीक है.
प्रेममयी इस झील का,अविरल मंद प्रवाह!
इसकी परिधि अमाप है,और नहीं है थाह!!
भइया, झील में प्रवाह का बिम्ब अतार्किक है. झील ठहरे पानी की होती है. जबकि प्रवाह के लिए नदिया आदि की संज्ञाएँ उचित हुआ करती हैं.
रंगों की वर्षा हुई,अनुपम यह अभिसार!!
फाग गा रही प्रकृति भी,करके नव श्रृंगार!!
यह दोहा नहीं जमा. सर्वोपरि, श्रृंगार ही देख मन दुखी हो गया.
ध्यान मग्न रहता सदा,प्रतिदिन आठो याम!
वेणु बजाते आइये,मेरे गृह भी श्याम!
पहले पद में कर्ता कहाँ है ? ऐसे छंद दोषयुक्त हुआ करते हैं. खींच कर तो समझा ही जा सकता है कि रहता सदा वस्तुतः मैं के लिए आया है.
कण कण में है वो बसे,इधर उधर चहुँ ओर!
नटखट कान्हा,कृष्ण या,कह लो माखनचोर!!
बढिया !
इस छंद प्रस्तुति के लिए शुभकामनाएँ, भाई रामशिरोमणि जी. वैसे, आपके दोहों में बढिया सुधार दीख रहा है अब. चर्चा अब शिल्प पर न हो कर कथ्य और तथ्य की तार्किकता पर हो रही है.
शुभ-शुभ
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