निःश्वसन
उच्छ्वसन
सब देह-कर्म, यह अवगुंठन
मोह-पाश के बंधन तुम
बस तुम! तुम ही तुम
व्यक्त हाव
अव्यक्त भाव
नेह-क्लेश, अभाव-विभाव
रूप-गंध के कारण तुम
बस तुम! तुम ही तुम
सम्मुख हो जब
विमुख हुए, तब
मनस-पटल की चेतनता सब
अनुभूति-रेख में केवल तुम
बस तुम! तुम ही तुम
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सुरेन्द्र जी आपका बहुत-बहुत आभार!
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
सम्मुख हो जब
विमुख हुए, तब
मनस-पटल की चेतनता सब
अनुभूति-रेख में केवल तुम
बस तुम! तुम ही तुम
नीरज भाई बहुत सुन्दर शब्द बंधन गूढ़ सुन्दर रचना
भ्रमर ५
देह भाव अनुभूतियाँ दृश्य अदृश्य सबमें व्याप्त उस 'तुम' को पहचानते हुए उस तुम के साथ एक हो जाने पर ही ऐसी अभिव्यक्ति संभव है...
बहुत गहन रचना
आ० बृजेश जी आपको सादर बधाई इस अभिव्यक्ति पर.
आदरणीय सौरभ जी, आपका हार्दिक आभार! जो कुछ भी, जितना कुछ भी मेरी कलम चल पा रही है, इस मंच की ही देन है.
इस मंच पर आपकी इस रचना ने अपना स्थान बनाया है. यह रचना सामान्य सी घटना या रुटीनी प्रस्तुति नहीं है.
शरीर मन और चेतना. इन तीन विन्दुओं को इतनी सुगढ़ता से आपने बाँधा है कि बरबस दिल वाह कर उठता है.
इस मंच पर अभीतक प्रस्तुत हुई वैचारिक रचनाओं के सामने चुनौती की लकीर खींचती हुई है प्रस्तुत होती है यह रचना.
यह तो हुई विधाजन्य बातें.
भाई बृजेशजी, एक कवि के तौर पर आप एक बड़ी छलाँग लगाते हुए आगे आये दिखे हैं. कविता की इस विधा की मांग को समझना एक बात है, उस मांग को पूरा करने के क्रम में बिना पूर्वर्तियों का अंधानुकरण करते हुए अपनी बात करना ही मुख्य बात है. आप इसी विन्दु पर सफल हुए हैं.
हार्दिक बधाई और हृदय से शुभकामनाएँ.
आदरणीय शरदिंदु जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्द मुझे बहुत प्रोत्साहित करते हैं!
सादर!
आदरणीय आशुतोष जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना रोचक लगी, मेरा प्रयास सार्थक हुआ!
आदरणीय निकोर साहब आपका बहुत-बहुत आभार!
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