छप्पन व्यंजन खाय के,भरा पेट कर्राय
तब टीवी की खबर पर, 'देश प्रेम' चर्राय
नेता उल्लू साधते, आपन गाल बजाय
जनता देखय फायदा, बातन में आ जाय
जोड़-तोड़ बनि जाय जो, दोबारा सरकार
लूट-पाट होने लगे, बढ़ता भ्रष्टाचार
महंगाई जस जस बढ़ै, व्यापारी मुस्कायँ,
जैसे आवय आपदा, फौरन दाम बढ़ायँ
पत्रकारिता बिक गयी, कलम करे व्यापार
समाचार के दाम भी, माँग रहे अखबार
कामकाज को टारि के, बाबू गाल बजायँ
देश तरक्की कर रहा, सोचि सोचि मुस्कायँ
अब शिक्षा के नाम पर, शोबाजी भरपूर
टीमटाम तो बहुत है, शिक्षा कोसों दूर
- विशाल चर्चित
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सौरभ सर स्नेहिल सराहना हेतु हृदय से आभार एवं आपके सुझाव पर अक्षरशः अमल करूंगा !!!
विन्धेश्वरी भाई शुक्रिया !!!!
अखिलेश भाई धन्यवाद !!!
सामयिक किन्तु सार्थक दोहों के लिए बहुत-बहुत बधाई विशाल भाई.
इन दो दोहों को पढ़ कर बड़ा अच्छा लगा -
पत्रकारिता बिक गयी, कलम करे व्यापार
समाचार के दाम भी, माँग रहे अखबार
कामकाज को टारि के, बाबू गाल बजायँ
देश तरक्की कर रहा, सोचि सोचि मुस्कायँ
वैसे, एक सुझाव है, इस मंच पर उपलब्ध दोहों पर आलेख एक बार देख जायें.
शुभ-शुभ
लोकतंत्र के स्तम्भों एवं शिक्षा आदि पर करारा व्यंग्य , बधाई विशाल भाई
लक्ष्म्ण सर जी आभार !!!
दिल से धन्यवाद डॉ. आशुतोष जी !!!
शुक्रिया अरुन भाई !!!!
गिरिराज सर जी हृदय से आभार !!!!
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