बने रहें ये दिन बसंत के,
गीत कोकिला गाती
रहना।
मंथर होती गति जीवन की,
नई उमंगों से भर जाती।
कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित,
वसुधा मंद-मंद मुसकाती।
देखो जोग न ले अमराई,
उससे प्रीत जताती
रहना।
बोल तुम्हारे सखी घोलते,
जग में अमृत-रस की धारा।
प्रेम-नगर बन जाती जगती,
समय ठहर जाता बंजारा।
झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे,
तुम प्रकाश बन आती
रहना।
जब फागुन के रंग उतरकर,
होली जन-जन संग मनाएँ।
मिलकर सारे सुमन प्राणियों
के मन स्नेहिल भाव जगाएँ।
तब तुम अपनी कूक-कूक से
जय उद्घोष गुँजाती
रहना।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत सुंदर नवगीत...बहुत-बहुत बधाई.... |
आदरणीया कल्पना जी, सुन्दर भाव पूर्ण गीत रचना के लिये आपको बहुत बहुत बधाइयाँ ॥
बने रहें ये दिन बसंत के,
गीत कोकिला गाती
रहना।.......बहुत ही सुंदर एवं सकारात्मक पूर्ण भाव पूरे गीत में समाहित है.कल्पना जी आपको दिलसे साधुवाद.
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