विजय – पराजय
वह जो मैंने सपने मे देखा
सोने की गाय
कुतुबमीनार पर घास चर रही थी , और –
नीचे ज़मीन पर बैठा कोई ,
सूखी रोटियाँ तोड़ रहा था ।
अचानक कुतुब झुकने लगा
मुझे ऐसा लगा, जैसे -
वह झुक कर स्थिर हो जाएगा
पीसा के मीनार की तरह
और बनेगा
संसार का आठवाँ आश्चर्य ।
पर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ
वह धराशायी हो गया
गाय कहाँ गयी , कुतुब कहाँ गया
कह नहीं सकता
किन्तु सूखी रोटियों के टुकड़ों की
आकाश से वर्षा हो रही थी
यह मैंने साफ देखा था ।
----- मौलिक और अप्रकाशित -----
Comment
बहुत खूब, बहुत खूब !!!
आदरणीय ब्रह्मचारीजी, अभी तक की आपकी प्रस्तुत हुई समस्त रचनाओं में यह रचना सबसे अलग, व्यवस्थित, सार्थक इंगितों से समृद्ध रचना है. इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई तथा असीम शुभकामनाएँ, आदरणीय.
सादर
वाह बहुत ही प्रभावशाली सशक्त रचना, दो भिन्न परिस्थितिओं को कम शब्दों में बहुत ही सटीक ढंग से प्रस्तुत किया है आपने. आपको दिल से बधाइयाँ प्रेषित करता हूँ स्वीकार करें.
अद्दभुत कल्पना और उसके पीछे जबरदस्त कटाक्ष .....सूखी रोटियाँ ही तो बची हैं इस देश में ...न सोने की गाय रही न सोन चिरैया
रचना में देश की भावी सूरत परिलक्षित होती है ...बहुत खूब ...आ० विजय जी,बधाई आपको.
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