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वो बज्म में यूं तनहा क्यूँ खुद आप सोचिये
वो मैकदे मैं प्यासा क्यूँ खुद आप सोचिये
सूरज फलक पे आता है हर रोज वक़्त पर
फिर भी रहा अँधेरा क्यूँ खुद आप सोचिये
बचपन जवान होने से पहले ज़वाँ हुए
है बात इक इशारा क्यूँ खुद आप सोचिये
भरपूर तेल बाती भी दमदार थी मगर
किस ने दिया बुझाया क्यूँ खुद आप सोचिये
कांधा जो देने आया था हर शख्स गैर था
खुद को ही यूं मिटाया क्यूँ खुद आप सोचिये
पी आग उम्र भर यूं ही जलता रहा हूँ मैं
अपना वदन जलाया क्यूँ खुद आप सोचिये
चलने की कोशिशों में मैं माना फिसल गया
पर यूं हँसा जमाना क्यूँ खुद आप सोचिये
जो हँस रहे थे हाथों में ले हार हैं खड़े
बदला हुआ नजारा क्यूँ खुद आप सोचिये
मौलिक व अप्रकाशित
डॉ आशुतोष मिश्र
Comment
जो हँस रहे थे हाथों में ले हार हैं खड़े
बदला हुआ नजारा क्यूँ खुद आप सोचिये.. ... . .इस शेर को तकाबुले रदीफ़ से बचालिया होता तो एक दमदार कहन साझा करता हुआ शेर हुआ है.
दाद कुबूल कीजिये, आदरणीय आशुतोष भाईजी..
सादर
आदरणीय लक्षमण जी ..आपके स्नेहिल शब्दों के लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर
आदरणीय विजय सर ...बस आपका आशीर्वाद यूं ही मिलता रहे
आदरणीय गिरिराज भाईसाब...मुझे आपकी स्नेह की सदैव जरूरत है ..आपके स्नेहिल शब्दों के लिए तहे दिल धन्यवाद
आदरणीया अन्नपूर्णा जी ..स्नेहिल इन शब्दों के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय भुवन जी .. आदरणीय जीतेन्द्र जी ...उत्साहवर्धक इन शब्दों के लिए तहे दिल ध्न्यवाद सादर
आदरणीय भाई आशुतोष जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई कबूल करें .
इस अच्छी गज़ल के लिए बधाई।
आदरनीय आशुतोश भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है , इतने भारी रदीफ को निभाना आसान काम नही है !! आपको तहे दिल से बधाइयाँ ॥
बहुत खूब !! आ0 आशुतोष जी बधाई आपको इस सुंदर गजल के लिए ।
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