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अभी तो म्यान देखी है अभी तलवार देखोगे

१२२२    १२२२     १२२२    १२२२

अभी तो म्यान देखी है अभी तलवार देखोगे

हिरन के सींग देखे सींग की तुम मार  देखोगे 

 

बहुत खुश होते हो परदे के जिन अश्लील चित्रों पर

बहुत रोओगे जब घर पर यही बाज़ार देखोगे

 

जिस्म की मंडियों में डोलते हो बन के सौदागर

करोगे खुदकशी बेटी को जब लाचार देखोगे

 

नदी, नाले, तलैया-ताल यारों देखकर सँभलो

नहीं तो तुम सड़े पानी का पारावार देखोगे

 

अभी भाता बहुत है ये सफ़र पूरब से पश्चिम का

बहुत तडपोगे जब जीवन में हाहाकार देखोगे

 

अभी तुम खूब सजदे कर रहे पश्चिम की नागिन का

रहा ये हाल तो पश्चिम का फिर दरवार देखोगे

 

हज़ारों सांप अस्तीनी, छुपे हैं भेंडिये लाखों

अभी जयचंद जैसे कितने ही गद्दार देखोगे

 

हज़ारो पीढ़ियों पे अपनी था जिस नीम का साया

अभी उस पर तो क्या निज साँस पर अधिकार देखोगे

 

मौलिक व अप्रकाशित 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 3, 2014 at 4:06pm

नदी, नाले, तलैया-ताल यारों देखकर सँभलो

नहीं तो तुम सड़े पानी का पारावार देखोगे

 

अभी भाता बहुत है ये सफ़र पूरब से पश्चिम का

बहुत तडपोगे जब जीवन में हाहाकार देखोगे... . .

बहुत खूब आदरणीय आशुतोष भाई. यह एक ऐसा तथ्य है जो एक चुभती हुई सच्चाई है, जिसे आपने साझा किया है. बधाई !

जिस्म को जिसम  क्यों पढ़वाना चाहते हैं आप ? ऐसा उच्चारण तो हिन्दीवालो ने भी नहीं अपनाया है. इस हिसाब से वो मिसरा बह्र से बाहर हो गया है.
शुभेच्छाएँ

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 2, 2014 at 10:53am
आदरणीय आशुतोष जी! बहुत ही बेहतरीन गजल। बधाई।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 1, 2014 at 11:32am

आदरणीय लक्ष्मण जी ..स्नेहिल शब्दों के लिए तहे दिल आभार ..सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 30, 2014 at 7:18am

आदरणीय आशुतोष भाई , बहुत लाजवाब ग़ज़ल कही है , हर शे र एक से बढ़ के एक हैं , किसी एक को आज नही चुन सकता .पश्चिमी सभ्यता के प्रेमियों  को जिस भविष्य के प्रति सचेत होने कि सलाह दी है वह महत्वपूर्ण है .इसके दुस्परिनाम तो सभी को हेलने पड़ेंगे .  पूरी ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाईयाँ

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 29, 2014 at 2:49pm

आदरणीय अखिलेश भाईसाब ..आप सतत ही मेरा हौसला बढाते हैं ..बस यूं ही स्नेह बनाए रखें सादर 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on March 29, 2014 at 12:41pm

बहुत खुश होते हो परदे के जिन अश्लील चित्रों पर

बहुत रोओगे जब घर पर यही बाज़ार देखोगे.........  बहुत तीखा व्यंग्य किया है पश्चिमी सभ्यता के प्रेमियों  पर

जिस्म की मंडियों में डोलते हो बन के सौदागर

करोगे खुदकशी बेटी को जब लाचार देखोगे

हार्दिक बधाई आशुतोष भाई 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 28, 2014 at 1:04pm

अरुण जी ..कमाल की पैनी नज र है आपकी ..बहुत देर तक तो मैं खुड भ्रमित था ..सही है काफिया वार देखोगे हो गया है ..इसमें संशोधन करके यदि हिरन के सींग देखे सींग की तुम धार देखोगे ..कर दिया जाए या कोई और उचित परामर्श देने का कष्ट करें ..सादर 

Comment by अरुन 'अनन्त' on March 28, 2014 at 11:08am

आदरणीय आशुतोष सर काफिया कहाँ है ? कृपया आप भी जाँच लें.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 28, 2014 at 10:01am

आदरणीय गिरिराज भाई साब ये मेरे कालेज जीवन की ग़ज़ल थी ..उसे ग़ज़ल के नियमों के अनुरूप परिवर्तित किया था ..ग़ज़ल आपको पसंद आयी ...आपके शब्द मुझे सतत श्रजन में उर्जा प्रदान करते हैं ..सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 28, 2014 at 9:58am

आदरणीय शिज्जू जी ..हौसला अफजाई के लिए तहे दिल धन्यवाद ..बस यूं ही आप का स्नेह मिलता रहे ..सादर 

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