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1222    1222     1222     1222

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सिखाते  क्यों  हमें  हो  तुम वही इतिहास की बातें
दिलों में  घोलकर  नफरत  नये  विश्वास  की बातें

*
बताओ  घर   बनेगा  क्या  हमारा   आसमानों  में
जमीनें  छीन   के   करते  सदा  आवास  की  बातें

*
कहाँ  से  हो  कठौती  में   हमारे   गंग  की  धारा
बिठाई  ना  मनों  में जब  कभी रविदास  की बातें

*
बहाकर  अश्क  भी  यारो  कहाँ  दुख  दूर  होते हैं
गमों  से  पार  पाने  को  करो   परिहास  की बातें

*
हमारे  देवता  जो  हैं  करम  तक  आ  न  पाये हैं
दिया पतझड़  हमेशा ही,  कही  मधुमास की बाते

*
हुआ  होगा  कभी  मजनू  जिसे  था प्यार रूहों से
मगर इस युग चली आयी  सदा सहवास की बातें

*
मुझे लगती नहीं अच्छी  'मुसाफिर’ फितरतें तेरी
अगर बरसात  भी हो तो  करोगे  प्यास की बातें

मैलिक व अप्रकासित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 13, 2014 at 10:18am

आदरणीय भाई सौरभ जी आपके मसवरेनुसार कमियों को इस प्रकार ठीक किया है क्या ठीक है

१- तकाबुले रदीफ़ -  बनेगा आसमानों  में बताओ  क्या  हमारा  घर 

२- ना का दोष - बिठाई  ना  मनों  में जब = बिठा पाये  न  मन  में जब 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 8, 2014 at 2:08pm

आसमानों में   सही वाक्यांश है. आसमानों पर  भी सही माना जा सकता है. लेकिन जिस तरीके से उक्त शेर का उला हुआ है उसके अनुसार आसमानों में  सही प्रतीत हो रहा है. अब तकाबुले रदीफ़ से निजात पाना आपको है, जो कि आखिरी  एं की मात्रा यानि में  के कारण संभव हो गया है. प्रयासरत रहें, आदरणीय... :-))

सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 8, 2014 at 12:12pm

भाई चंद्रशेखर जी ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 8, 2014 at 12:11pm

आदरणीय भाई जीतेन्द्र जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए दिली आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 8, 2014 at 12:09pm

आदरणीय भाई सौरभ जी , अनमोल सलाह के लिए हार्दिक धन्यवाद . मतले के सन्दर्भ में आपने जी संशोधन सुझाया है वह बेहतरीन है . तकाबुले रदीफ़ की दिक्कत क्या  में के बजाय आसमानो पर किया जा सकता है क्या ? ग़ज़ल परंपरा कि जानकारी देने के लिए बहुत बहुत आभार .

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 8, 2014 at 12:43am

बताओ  घर   बनेगा  क्या  हमारा   आसमानों  में
जमीनें  छीन   के   करते  सदा  आवास  की  बातें............वाह ! क्या कमाल का शेर

लाजवाब गजल पर , हार्दिक बधाई आपको आदरणीय लक्ष्मण जी

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 8, 2014 at 12:26am
वाह्ह्ह्ह

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 8, 2014 at 12:18am

एक सार्थक मतले के लिए दिल से दाद कुबूल कीजिये, साहब.

वैसे मुझे समय देना होता तो मतले पर मैंने कुछ और समय दिया होता. शायद ऐसे हो तो देखिये -
बताते क्यों हमें हो तुम उसी इतिहास की बातें
दिलों में घोलती नफरत निरी बकवास की बातें.. ..

सिखाने और बताने में एक अर्थवान अंतर है. अच्छी बातें सिखायी जानी चाहिये, जबकि गलत बातें बतायी जाती हैं, घोंट कर पिलायी जाती हैं.

मतले के बाद पहले शेर में तकाबुले रदीफ़ की दिक्कत बन रही है. इसे देखलें. वैसे शेर की कहन दाद ले रही है.
ग़ज़ल में कई शेर बार-बार वाह ले रहे हैं. बधाइयाँ ..

एक बात और, ग़ज़ल की परम्परा में ना का प्रयोग नहीं होता. न ही प्रयोग किया करें. इस हिसाब से इस मिसरे को पुनः देख लें - बिठाई ना मनों में जब कभी रविदास की बातें.

एक अच्छी ग़ज़ल के लिए पुनः बधाइयाँ.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 1, 2014 at 12:51pm

आदरणीय भाई गिरिराज जी , ग़ज़ल कि प्रशंसा और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 1, 2014 at 10:47am

आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत लाजवाब गज़ल कही है , हर शे र लाजवाब हैं , आपको दिली बधाइयाँ ॥

कृपया ध्यान दे...

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