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सियासत पूछ मत तुझमें पतन क्या-क्या नहीं देखा
बहुत खुदगर्ज देखे हैं मगर तुझ सा नहीं देखा
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महज कुर्सी को दुश्मन से करे तू लाख समझौते
चरित तुझ सा किसी का भी यहाँ गिरता नहीं देखा
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सपन में भी दिखा करती मुझे तो बस सियासत ही
सियासत से मगर कच्चा कोई रिश्ता नहीं देखा
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बराबर बाटते देखी मुहब्बत भी समानों सी
बड़ा-छोटा करे माँ प्यार का हिस्सा नहीं देखा
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डपटता भी अगर है तो सुधर जा की नसीहत से
खुदा की आँख में मैंने कभी गुस्सा नहीं देखा
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ये जो जम्हूरियत कहते लुटेरों का तमाशा अब
यहाँ मालिक कहाता जो भला उसका नहीं देखा
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सुना है कल सियासतदाँ चले आए थे बस्ती में
‘मुसाफिर’ आज बस्ती में कोई बच्चा नहीं देखा
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब भाईजी.
हार्दिक शुभकामनाएँ .. .
आदरणीय लच्छ्मन धामी जी, एक बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई आपको !
आदरणीय भं अन्नपूर्णा जी , आपकी प्रतिक्रिया और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय भूवन भाई ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए दिली धन्यवाद .
भाई विशाल जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार .
भाई गिरिराज जी , आपको असआर पसंद आये यह मेरे लिए हर्ष का विषय है . मार्गदर्शन करते रहिये . हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय राजेश बहन , आपकी दाद से असीमित ख़ुशी मिली .कमियों के बारे भी अवगत करते रहें . हार्दिक धन्यवाद .
भाई कृष्णा सिंह जी, ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए आभार . वह शब्द 'समानों ' ही है जो सामानों के सन्दर्भ में ही प्रयोग हुआ है .
आदरणीय भाई जीतेन्द्र जी , ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया से मन हर्षित हुआ . हार्दिक धन्यवाद .
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।
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