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ग़ज़ल-चादनीं तुम मेरी बनीं हो क्या

दूर है चाँद बंदगी हो क्या

दिल की बस्ती में रौशनी हो क्या 

 

और के ख्वाब को न आने दिये

ख्वाब में ऐसी नौकरी हो क्या 

 

मुड़के देखा हमें न जाते हुये

तल्ख़ इससे भी बेरुखी हो क्या 

 

ज़ख्म देकर तो खुश हुये उस दिन

मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या 

 

गा तो सकता था मैं भी तेरी ग़ज़ल

यूँ कभीं मेरी धुन सुनीं हो क्या

 

साथ सदियों तलक दे सकता था मैं

दो कदम साथ तुम चली हो क्या

 

सोचकर क्यूँ ये रात ढलती रही

तुम हमें भी यूँ सोचती हो क्या

 

ख़त मेरे सामनें जलाये फ़क़त

और तेरी ये दिल्लगी हो क्या

 

बन तो सकता था मैं भी यूँ तेरारवि

चादनीं तुम मेरी बनीं हो क्या

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मौलिक और अप्रकाशित-अतेन्द्र कुमार सिंह'रवि'

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Comment by Atendra Kumar Singh "Ravi" on April 1, 2014 at 6:14pm

आदरणीय डॉ० साहब आपको ग़ज़ल पसंद आई ...आभार सहित बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by Atendra Kumar Singh "Ravi" on April 1, 2014 at 6:11pm

आदरणीया वंदना जी हमारी ग़ज़ल को मान देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by Atendra Kumar Singh "Ravi" on April 1, 2014 at 6:09pm

....नेट न होने के कारन हम मुशायरे में अपनी ग़ज़ल पोस्ट नहीं कर पाए जिसका हमें बहुत खेद है वैसे आदरणीया अनुपमा जी आप को हमारी ग़ज़ल पसंद आई ...आभार सहित बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 1, 2014 at 5:47pm

ज़ख्म देकर तो खुश हुये उस दिन

मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के इस शेर लिए बिशेष रूप से बधाई ..सादर 

Comment by vandana on April 1, 2014 at 6:42am

मुड़के देखा हमें न जाते हुये

तल्ख़ इससे भी बेरुखी हो क्या 

 

ज़ख्म देकर तो खुश हुये उस दिन

मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या 

बहुत बढ़िया आदरणीय 

Comment by annapurna bajpai on March 31, 2014 at 11:04pm

सुंदर गजल ,। 

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