चल पड़े राह जो गुनाह में थे ।
गुम गए वो सभी सियाह में थे ।
वो क्या थी अदा हमें दिखाई ,
जब हमारी रहे निगाह में थे ।
वो क्या ये बतायें तुझे अब ,
जब रहे वो न उस सलाह में थे ।
हम कहें भी क्या तो वेसा क्या ,
जब रहे हम उसी पनाह में थे ।
क्यों लगे वो यहीं रुके होंगे ,
जो सदा के लिए प्रवाह में थे।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
2122 2121 212
हम नही चा / हे चलें गु/ नाह मे = हम नहीं चाहे चलें गुनाह मे
2122 2121 212
ज़िन्दगी फिर / क्यूँ रही सि / याह में = ज़िन्दगी फिर क्यूँ रही सियाह मे
आदरणीय आपकी ग़ज़ल उपर लिखे बह्र मे आ सकती है ( बह्र मान्य है या नही मै नही जानता ) मतला सुधार दिया हूँ , आप बाक़ी शे र देख लीजियेगा !!
आदरणीय मोहन भाई , गज़ल के प्रयास के लिये आपको बधाइयाँ ॥ बह्र मे कुछ कमियाँ लग रहीं है , कुछ शे र बात साफ कह भी नही पाये हैं ॥ आप एक बार स्वयम् पढ़ के देखियेगा ॥
गजल के शिल्पों से ज्यादा परिचित नहीं हूँ , लेकिन छोटी बह्र की आपकी गजल उम्दा लगी ।
बेहतरीन रचना के लिए बहुत सी बधाई आपको
अच्छी ग़ज़ल की हार्दिक बधाई । |
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