ग़ज़ल :- कितने गडबड झाले हैं
कितने गडबड झाले हैं ,
और हम बैठे ठाले हैं |
तेल खेल ताबूत तोप में ,
घोटाले घोटाले हैं |
राजनीति अब शिवबरात है ,
नेताजी मतवाले हैं |
कलम की पैनी धार कुंद है ,
बाजारू रिसाले हैं |
बिकता नहीं साहित्य आजकल ,
विज्ञापन के लाले हैं |
सुई गड़ाकर दूह रहे सब ,
गोमाता को ग्वाले हैं |
क्या गाऊँ श्रृंगार की कविता ,
मुंह में सच के छाले हैं |
नहीं गये अँग्रेज़ आज भी ,
शासक लाठी वाले हैं |
न्याय की आँखों पर हैं पट्टी ,
मुंह पर भय के ताले हैं |
("बैठे ठाले "के लिये नवीन जी का आभारी हूँ ..अभिनव अरुण ११-०२-११)
Comment
बिकता नहीं साहित्य आजकल ,
विज्ञापन के लाले हैं |
सुई गड़ाकर दूह रहे सब ,
गोमाता को ग्वाले हैं
ek aur behatarin gazal ke liye badhai..arun ji...
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