1222 1222 1222 1222
इशारों को शरारत ही कहूं या प्यार ही समझूं
कहूं मरहम इन्हें या खंजरों का वार ही समझूं
कशिश बातों में तेरी अब अजब सी मुझको लगती है
कहूं बातों को बातें या इन्हें इकरार ही समझूं
वो डर के भेडियो से आज मेरे पास आये हैं
कहूं हालात इसको या कि फिर एतवार ही समझूं
झरे आँखों से आंसू आज तो बरसात की मानिंद
कहूं मोती इन्हें या सिर्फ मैं जलधार ही समझूं
तेरी नजरों ने कैसी आग सीने में लगाई है
गुनहगारों सा मानूं तुमको या दिलदार ही समझूं
नहीं खिड़की पे आती आजकल क्या बात है बोलो
युँ तुम शरमा रही हो या इसे इनकार ही समझूं
पड़े ओंठो पे ताले पलके उठती और गिरती हैं
इसे मैं जीत ही मानू या इसको हार ही समझूं
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
लाजवाब ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय .......... हार्दिक बधाई आपको
सुन्दर रचना! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय आशुतोष सर बहुत सुन्दर ग़ज़ल सभी अशआर अच्छे लगे, इसकी तक्तीअ पुनः करे लें. इस प्रयास पर बधाई स्वीकारें.
गुनहगारों सा मानूं तुमको या दिलदार ही समझूं ... बह्र में नहीं है
आदरनीय आशुतोष भाई , बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है , मेरी दिली दाद स्वीकार करें !!
आदरणीय आशुतोष भाई , इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .
नहीं खिड़की पे आती आजकल क्या बात है बोलो
युँ तुम शरमा रही हो या इसे इनकार ही समझूं................वाह! क्या बात कही, पुरानी यादों को ताजा कर दिया आपने
पड़े ओंठो पे ताले पलके उठती और गिरती हैं
इसे मैं जीत ही मानू या इसको हार ही समझूं..............बहुत बहुत सुंदर
आदरणीय डा.आशुतोष जी, इस लाजवाब गजल पर आपको तहे दिल से बधाई
वाह्ह्ह्ह्ह क्या बात है, सर बहुत उम्दाह्ह!!
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