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कैसी शुष्कता है?

जो धूप में

बदन झुलसा रही..

भीतर इतनी आग

विरह की जो

केवल धुआँ

और धुआँ देती है

राख तक नसीब नहीं

जिसे रख दूँ संजो कर

तेरी हथेली पर

जब मिलन की बेला हो

और कहूँ कि....

यह पाया मैंने

तुझ बिन...!

     जितेन्द्र ' गीत '

( मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 22, 2014 at 9:21pm

आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है आदरणीय लक्ष्मण जी, स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 22, 2014 at 9:20pm

आदरणीया कल्पना जी, रचना पर आपकी उपस्थिति से मन को बहुत ख़ुशी व् लेखनकर्म को मनोबल मिलता है. आपका ह्रदय से आभार . स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 22, 2014 at 9:17pm

आदरणीय अखिलेश जी, आपकी उत्साहवर्धक सराहना के लिए आपका ह्रदय से आभारी हूँ, स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 22, 2014 at 9:12pm

आपका ह्रदय से आभार आदरणीया अन्नपूर्णा दीदी, स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 22, 2014 at 9:11pm

आपकी उत्साहवर्धक सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभार आदरणीय सचिन जी, स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 22, 2014 at 9:09pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीय अनुराग जी, स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 22, 2014 at 8:16am

भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई 

Comment by कल्पना रामानी on April 21, 2014 at 11:05pm

गहरे भावों की उत्तम प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीय जितेंद्र जी!

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on April 21, 2014 at 10:33pm

आ. जितेन्द्र भाई

 छोटी कविता, सुंदर गहरे भाव , हार्दिक बधाई 

Comment by annapurna bajpai on April 21, 2014 at 9:05pm

sundarसुंदर रचना , गीत जी बधाई आपको । 

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