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कैसी शुष्कता है?

जो धूप में

बदन झुलसा रही..

भीतर इतनी आग

विरह की जो

केवल धुआँ

और धुआँ देती है

राख तक नसीब नहीं

जिसे रख दूँ संजो कर

तेरी हथेली पर

जब मिलन की बेला हो

और कहूँ कि....

यह पाया मैंने

तुझ बिन...!

     जितेन्द्र ' गीत '

( मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment

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Comment by vijay nikore on April 20, 2014 at 8:42am

इस अति सुन्दर रचना के लिए बधाई। ऐसे ही लिखते रहें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 20, 2014 at 1:48am
दर्द और क्षोभ दोनों की इतनी स्पष्ट किंतु सभ्य और संतुलित अभिव्यक्ति से आपकी भावनाओं को चार चाँद लग गए हैं...आदरणीय जीतेंद्र जी, यह आपकी रचना की सार्थकता है. अभिनंदन और शुभकामनाएँ.
Comment by बृजेश नीरज on April 18, 2014 at 8:28pm

बहुत सुन्दर  और भावपूर्ण रचना ! आपको बहुत-बहुत बधाई!

Comment by Shyam Narain Verma on April 18, 2014 at 5:50pm
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर.......................
Comment by Sarita Bhatia on April 18, 2014 at 3:31pm

आदरणीय जितेंदर भाई विरह का बखूबी चित्रण किया है आपने ,हार्दिक बधाई 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 18, 2014 at 2:13pm

और कहूँ कि....

यह पाया मैंने

तुझ बिन...!

बहुत सुन्दर जज्बात 

सस्नेह बधाई 

Comment by Arun Sri on April 18, 2014 at 11:58am

कितने रिक्त  रहते हैं न हम वियोग के दिनों में !!!!! जहाँ पहुंचनी चाहिए थी , पहुंची आपकी कविता !

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 18, 2014 at 10:43am
क्या सरलता
क्या प्रवाह
भाई वाह्ह्ह!!!!
बधाइयां

कृपया ध्यान दे...

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