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ग़ज़ल: "क्यूँ लगता है"

बह्र = 121 2122 2122 222

हर एक आदमी इंसान सा क्यूँ लगता है
खुदा तेरा मुझे भगवान् सा क्यूँ लगता है

हज़ारो लोग दौड़े आते हैं मंदिर मस्जिद
मुझे खुदा ही परेशान सा क्यूँ लगता है

 कि सारी जिंदगी नाजों से था पाला जिसने
वो बूढ़ा बाप भी सामान सा क्यूँ लगता है 

सियासी कूचों से होकर के गुजरने वाला 
हर एक शख्स बे ईमान सा क्यूँ लगता है

इबादतों का कोई वक्त जो बांटूं भी तो
हर एक माह ही रमजान सा क्यूँ लगता है

अनुराग सिंह "ऋषी"

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Anurag Singh "rishi" on April 21, 2014 at 4:38pm

आदरणीय श्याम नारायण सर आपके इस प्रेरणादायी प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार आपको

Comment by Shyam Narain Verma on April 21, 2014 at 4:10pm
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई।
Comment by Anurag Singh "rishi" on April 21, 2014 at 3:12pm

बहुत बहुत शुक्रिया चंद्रशेखर सर

Comment by Anurag Singh "rishi" on April 21, 2014 at 3:12pm

आदरणीया सरिता मैम हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 21, 2014 at 2:18pm

कोशिश अच्छी है अनुराग भाई, प्रयासरत रहें शुभेच्छाएँ। वीनस जी की ":"गजल की कक्षा"" समूह ज्वाइन कर लें, समस्याएं दूर हो जाएंगी

Comment by Sarita Bhatia on April 21, 2014 at 1:58pm

वाह भावपूर्ण गजल 

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