Added by Anurag Singh "rishi" on January 24, 2015 at 12:30am — 8 Comments
Added by Anurag Singh "rishi" on December 23, 2014 at 10:06am — 10 Comments
बह्र = 121 2122 2122 222
हर एक आदमी इंसान सा क्यूँ लगता है
खुदा तेरा मुझे भगवान् सा क्यूँ लगता है
हज़ारो लोग दौड़े आते हैं मंदिर मस्जिद
मुझे खुदा ही परेशान सा क्यूँ लगता है
कि सारी जिंदगी नाजों से था पाला जिसने
वो बूढ़ा बाप भी सामान सा क्यूँ लगता है
सियासी कूचों से होकर के गुजरने वाला
हर एक शख्स बे ईमान सा क्यूँ लगता है
इबादतों का कोई वक्त जो बांटूं भी तो
हर एक माह ही रमजान सा क्यूँ लगता है …
Added by Anurag Singh "rishi" on April 21, 2014 at 12:30pm — 26 Comments
पत्थर बना रहा सदा पत्थर बना रहा
ग़ज़लों में रोये ज़ार हम वो अनसुना रहा
दुनिया है हुक्मरान की क़ानून हैं बड़े
लाखों किये जतन मगर ये बचपना रहा
रातो में नीद भी नही दिन में नही सुकूं
सब कुछ रहा अजीब सा जब तुम बिना रहा
मंजिल से दूर रोकने क्या क्या नही हुआ
रस्ते भुलाने के लिए कुहरा घना रहा
सोचा बुला दूँ जो तुझे जाएगी मेरी जान
जीता रहा जरूर मै पर तडपना रहा
अनुराग सिंह “ऋषी”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Anurag Singh "rishi" on April 13, 2014 at 1:00pm — 19 Comments
प्यार जिससे भी आप करते है
जिसकी खातिर सदा संवरते हैं
ख़्वाब में सामने भी आये तो
कुछ भी कहने में आप डरते हैं
जितना ज्यादा हैं सोचते उनको
वैसे वैसे ही वो निखरते हैं
इस सियासत के दांव पेंचों में
कितने मासूम हैं जो मरते हैं
आशिकी का यही उसूल रहा,
करती नजरें है आप भरते हैं
आँख रोने को जरूरी तो नही
अश्क गजलों से भी तो झरते हैं
अनुराग सिंह "ऋषी"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Anurag Singh "rishi" on December 25, 2013 at 9:38am — 9 Comments
कभी सपने सज़ाता है कभी आंसू बहाता है
खुदा दिल चीज़ कैसी है जो पल में टूट जाता है
ये उठते को गिराता है व गिरते को उठाता है
अरे ये वक्त ही तो है सदा हमको सिखाता है
मेरी ज़र्रा नवाज़ी को न कमज़ोरी समझना तुम
अदाकारी परखने का हुनर हमको भी आता है
जो ज़ेरेख्वाब ही मदमस्त हो अपने लिए जीता
ये आदमजात है भगवान को भी भूल जाता है
मै रोऊँ या हंसूं मंज़ूर पर उसको ही लेकर के
भला क्यों आज भी हम पर वो इतना हक जताता है…
Added by Anurag Singh "rishi" on July 13, 2013 at 11:00am — 21 Comments
Added by Anurag Singh "rishi" on June 29, 2013 at 12:13pm — 13 Comments
मै खड़ा हूँ यूँ बांहों को खोले हुए
मेरी बाँहों में आने का वादा करो
मै जहाँ ये भुला दूँगा सुन लो मगर
मुझको दिल में बसाने का वादा करो
मै जो अब तक अकेला हूँ जीता रहा
धुंधले ख्वाबों को आँखों से सीता रहा
ये जो कोरी पड़ी है मेरी जिंदगी
रंग अपना चढ़ाने का वादा करो
मै खड़ा हूँ यूँ बांहों को खोले हुए
मेरी बाँहों में आने का वादा करो
तुम जो रूठी तो तुमको मना लूँगा मै
तुमको पल भर में अपना बना लूँगा मै
मै भी रूठूँगा…
Added by Anurag Singh "rishi" on June 24, 2013 at 6:30pm — 16 Comments
यूँ पाठ जिंदगी का पढ़ाने का शुक्रिया
की बेरुखी से मुझको भुलाने का शुक्रिया
गुज़रे हुए निशान कुछ रेती पे पैर के
यादें यूँ अपनी छोड़ के जाने का शुक्रिया
कोई तो चाहिए ही था इक हमसफ़र तुझे
दिल में किसी को और बसाने का शुक्रिया
रातों से हो गयी है मुहब्बत सी अब हमें
ख्वाबों में ही दीदार कराने का शुक्रिया
दिल मोम का है सोंच के रोता रहा सदा
पत्थर कि तरहा दिल को बनाने का शुक्रिया
मुझको लगा ये काफ़िला मेरे ही साथ है…
ContinueAdded by Anurag Singh "rishi" on June 10, 2013 at 1:15pm — 11 Comments
भले ही आज जीवन में, तेरे कायम अँधेरा है
इसी दुनिया में ही लेकिन, कहीं रौशन सवेरा है
मै इक ऐसा परिंदा हूँ, नही सीमाएं है जिसकी
मेरी परवाज़ की खातिर, ये दुनिया एक घेरा है
कभी हिंदू कभी मुस्लिम. रहे हैं हारते हरदम
सियासत खेल ऐसा है, न तेरा है न मेरा है
कुतरते ही रहे है देश को, हरदम जहाँ नेता
इसे संसद न कहियेगा, ये चूहों का बसेरा है
न जलती है न मरती है, महज़ कपड़े बदलती है
“ऋषी” इस रूह की खातिर, ये जीवन एक डेरा है …
Added by Anurag Singh "rishi" on June 5, 2013 at 7:30am — 13 Comments
दिल के करीब आइये कुछ तो बताइए
यूँ आग को सुलगा के भला क्यों बुझाइए ?
दुनिया के डर से आप को तनहा न छोडिये
बस आँख बंद कीजिए मुझमे समाइये
रोयी है बहुत आँख मुकम्मल ये जिंदगी
पलकों पे मेरी फिर नए सपने सजाइए
जीवन के ओर छोर का कुछ भी पता नही
यूँ जिंदगी में आइये वापस न जाइए
मुमकिन है थोड़ी गलतियाँ होती रही “ऋषी”
खुद को न ऐसे कोसिए न ही सताइए
अनुराग सिंह "ऋषी"
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना
Added by Anurag Singh "rishi" on June 3, 2013 at 7:35pm — 7 Comments
दिल में उठता पीर देखो
द्रोपदी का चीर देखो
मोल जिसका खो गया है
आँख का वो नीर देखो
दिल में जो सीधे लगे बस
शब्द के वो तीर देखो
फिर हुआ बलवा कहीं पे
खो गया जो वीर देखो
थी कभी नदियाँ यहाँ पर
बह गया जो छीर देखो
सांवरे को भूल कर के
आज राँझा हीर देखो
अनुराग सिंह "ऋषी"
मौलिक व अप्रकाशित रचना
Added by Anurag Singh "rishi" on June 1, 2013 at 6:00pm — 6 Comments
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