भले ही आज जीवन में, तेरे कायम अँधेरा है
इसी दुनिया में ही लेकिन, कहीं रौशन सवेरा है
मै इक ऐसा परिंदा हूँ, नही सीमाएं है जिसकी
मेरी परवाज़ की खातिर, ये दुनिया एक घेरा है
कभी हिंदू कभी मुस्लिम. रहे हैं हारते हरदम
सियासत खेल ऐसा है, न तेरा है न मेरा है
कुतरते ही रहे है देश को, हरदम जहाँ नेता
इसे संसद न कहियेगा, ये चूहों का बसेरा है
न जलती है न मरती है, महज़ कपड़े बदलती है
“ऋषी” इस रूह की खातिर, ये जीवन एक डेरा है
अनुराग सिंह “ऋषी”
अप्रकाशित एवं मौलिक
Comment
आभारी हू सर उस स्नेह के लिए जो आपसभी से मिल रहा है नमन स्वीकारें
सादर ----> आदरणीय डा. आशुतोष मिश्रा सर और वीनस केसरी सर :-)
भाव और शिल्प स्तर पर यह एक कामयाब ग़ज़ल है और ग़ज़लकार बधाई का पात्र है
ढेरो दाद ...
हाँ कहन के स्तर पर कुछ कच्चापन दीखता है मगर जब भाव हो और शिल्प की समझ भी तो कहन पर काबू पाना बहुत मुश्किल कहाँ रह जाता है
शुभकामनाएं
बेहतरीन ..सादर बधायी के साथ
आदरणीय राजेश कुमारी जी
अवश्य मैम आपका सुझाव सर आँखों पर सीखना ही तो है मुझे आप सभी से
धन्यवाद आपको
सादर
आप सभी के इतने प्यार के आगे मै नतमस्तक और कृतघ्न हूँ
आप सभी गुणी जनों के इस प्यार ने एक नई ऊर्जा से परिपूर्ण कर दिया है
आशा है आगे भी आप सभी का आशीष ऐसे ही प्राप्त होता रहेगा
सादर नमन आप सभी को :-)
वाह वाह वाह
क्या बात है बहुत सुन्दर आदरणीय
मै इक ऐसा परिंदा हूँ, नही सीमाएं है जिसकी
मेरी परवाज़ की खातिर, ये दुनिया एक घेरा है...लाजवाब
सुन्दर प्रयास! अच्छी ग़ज़ल कही आपने! बधाई स्वीकार हो ऋषि जी!
बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है ऋषी जी ---बस इस पंक्ति पर सलाह देना चाहूंगी --- इसे संसद तो न कहिये, ये चूहों का बसेरा है----इसे संसद नहीं समझो ये चूहों का बसेरा है प्रिय अरुन जी की बात पर गौर फरमाएं दाद कबूल कीजिये |
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए …………….. |
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