बह्र = 121 2122 2122 222
हर एक आदमी इंसान सा क्यूँ लगता है
खुदा तेरा मुझे भगवान् सा क्यूँ लगता है
हज़ारो लोग दौड़े आते हैं मंदिर मस्जिद
मुझे खुदा ही परेशान सा क्यूँ लगता है
कि सारी जिंदगी नाजों से था पाला जिसने
वो बूढ़ा बाप भी सामान सा क्यूँ लगता है
सियासी कूचों से होकर के गुजरने वाला
हर एक शख्स बे ईमान सा क्यूँ लगता है
इबादतों का कोई वक्त जो बांटूं भी तो
हर एक माह ही रमजान सा क्यूँ लगता है
अनुराग सिंह "ऋषी"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय प्रज्ञा मैम आपके बहुमूल्य टिप्पड़ी हेतु बहुत बहुत आभार आपका
सादर
आदरणीया महिमा मैम ह्रदय से आभार आपका
सादर
आद्नीय विजय सर आपको कोटिशः धन्यवाद
सादर
आदरणीय उमेश सर हौसला अफजाई हेतु बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
आदरणीय गिरिराज सर आपके कीमती एवं प्रेरणादायक टिप्पड़ी हेतु दिल से शुक्रिया आपका
सादर
आदरणीय गुमनाम सर बहुत बहुत आभार आपका सर
सादर
वाह बहुत ही बढ़िया .. बधाई आपको
सुन्दर गजल वाह
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