अमौसी हवाई अड्डे के बाहर
वह देख रहा था
पहचान-पत्र दिखाकर लोगों को जाते हुए
सुरक्षा के घेरे में.
वह स्वयं
सुरक्षा के घेरे से बहुत दूर था
अपनी ही दुनिया में –
लोग कहाँ जाते हैं
उसे क्या मालूम ?
लोगों को क्या मालूम
कि उनकी सुरक्षा के घेरे के बाहर
और भी दुनिया है !
उसने एक बार
दीवार की खिसकी हुई ईंट की जगह
आँख लगाकर देखा था
एक बड़ी सी चमचमाती चिड़िया
कोलतार के लम्बे रास्ते पर
दौड़ती हुई जाती है
फिर अचानक, आकाश में
मुँह उठाए उड़ जाती है –
अपने पैरों को पेट में समेटते हुए.
इससे पहले कि वह समझे
यह चिड़िया
फुदकने की बजाए दौड़ती क्यों है !
चहचहाने की जगह ग़ुर्राती क्यों है
वर्दी वाले ने डंडा दिखाकर कहा था
‘भाग यहाँ से, पागल कहीं का’
दुबककर पीछे हटते हुए
सुरक्षा घेरे के बाहर आकर
वह फिर से सुरक्षित महसूस कर रहा था.
उड़ती हुई वह चिड़िया
किस स्वप्नलोक में गयी
उसे क्या मालूम,
उसका स्वप्नलोक तो उसके सामने
हरे रंग के बंद डब्बे में था.
धीरे से डब्बे का ढक्कन खोलकर
उसने आज का खाना ढूँढ़ ही लिया
फिर अपने चीथड़े जेबों में हाथ डालकर
सम्राट की तरह जल्दी-जल्दी चलने लगा
डर था
कहीं सुरक्षा का घेरा वहाँ न आ पहुँचे
और उससे पहचान-पत्र माँगने की जुर्रत कर बैठे
....अगर उसे गुस्सा आ गया तो !!
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय शरदेन्दुजी,
आज आपकी अभिव्यक्ति के इस पक्ष पर अभिभूत हुआ निश्शब्द हूँ. प्रस्तुत हुई रचनाओं पर विलम्ब से आना कई बार सालता है लेकिन आपकी प्रस्तुत रचना तो मुझे मेरी विवशता पर मुँह चिढ़ाती लग रही है.
अपने समाज में हर पहलू के अनुसार बन गयी कई-कई गहरी खाइयाँ और उनसे जन्मी विसंगतियों की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति प्रयुक्त बिम्बों के सटीक एवं सार्थक प्रयोग से मुखर हो कर सामने आयी है.
वह स्वयं
सुरक्षा के घेरे से बहुत दूर था
अपनी ही दुनिया में –
लोग कहाँ जाते हैं
उसे क्या मालूम ?
लोगों को क्या मालूम
कि उनकी सुरक्षा के घेरे के बाहर
और भी दुनिया है !
उपरोक्त वाक्यांश ग़ज़ब के तमाचे रसीद करते हैं. एक संवेदनशील पाठक अपने समाज की दोगली व्यवस्था के विरुद्ध अपनी लाचारी को और असहाय पाता है.
दुबककर पीछे हटते हुए
सुरक्षा घेरे के बाहर आकर
वह फिर से सुरक्षित महसूस कर रहा था.
क्या बात है !
इस व्यंग्योक्ति की वेगवती धार शोर नहीं करती, अभिजात्य वर्ग में व्याप्त कर्कश अन्यमनस्कता को बहा ले जाने हेतु अपने प्रवाह को त्वरित बनाये रखती है.
बहुत दिनों के बाद आपकी कोई पद्य रचना देख रहा हूँ, आदरणीय. लेकिन आपकी इस रचना ने सभी मलालों को धो दिया है. रचना अंतर्निहित व्यंग्योतियों के कारण नव-हस्ताक्षरों के लिए अनुकरणीय भी है.
इस सुन्दर रचना के लिए सादर शुभकामनाएँ.
आदरणीया प्राची जी, आपने बहुत दिनों बाद मेरी किसी रचना पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है....और क्या खूब है यह प्रतिक्रिया !! मेरे मन के भावों को आपने बिल्कुल सही पढ़ा. मेरी रचना पुरस्कृत हुई. जब इस रचना की ओर कोई देख नहीं रहा था (अभी भी केवल 17 बार इसे देखा गया है) मुझे थोड़ी हताशा हुई थी. आदरणीय रमेश चौहान जी ने कहन की अस्पष्टता की बात कही...सो मुझे लगने लगा कि मैं अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में असफल रहा हूँ. आज आपकी टिप्पणी ने "मुझे,एक नयी औकात दिला दी". आपका हृदय से आभारी हूँ.
बहुत खूबसूरत...मर्मस्पर्शी
एक निर्धन अबोध की आँखों से देखें तो..... ये रहस्मयी चमचमाती चिड़िया का फुदके बिना ही उड़ जाना... चाह्चाने की जगह गुर्राना... क्या कुछ नहीं चलता होगा उसके मन में...
और ये सुरक्षा घेरा, पहचान पत्र, जन सभा और उसका दीवार की खिसकी ईंट से झाँकना.... क्या स्वाभाविक सहज शब्द चित्र उकेरा है.
आपकी संवेदनशीलता नें बहुत ही सटीक बिम्बों के माध्यम से बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आदरणीय शैलेन्द्र मुखर्जी जी
मेरी दिली बधाई स्वीकार करें
सादर.
इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई, सुंदर भाव
कहन कुछ अस्पष्ट लगी शायद मेरी समझ..........
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