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उजाले की ओर एक कदम और (लघुकथा)

रात गहराती जा रही थी उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी कमरे में अंघेरा इतना कि हाथ को हाथ सुझाई नही दे रहे थे |उसकी जिंदगी में अन्धेरा तो उसी दिन हो गया था जिस दिन उसने भूषन का हाथ थमा था पर फिर भी वो रौशनी की तलाश में अंधेरों से लड़ती रही | कभी उसका माथा फूट जाता, कभी आँखों के नीचे काला हो जाता तो कभी ठोकर खा कर गिरने से घुटना छिल जाता, अंधेरे में चलने से घाव तो लगने ही थे पर वो आगे बढ़ती रही |
अब वर्षों बाद इतनी दूर आ कर उसे थोड़ी सी रौशनी नसीब हुई तो अचानक ही उसे  फिर से ठोकर लगी और वो धडाम से उसी गहरी अंधेरी खाई में जा गिरी जहाँ फिर से उसके लिए अंघेरे के सिवा कुछ नही था | अब वो क्या करे इन्ही अंधेरों में रह कल अपना आस्तित्व खो दे या पुन: प्रयास करे उजालो की ओर बढ़ने का | एक अंतर्द्वंद से जूझ रही थी, वो क्या करे कुछ समझ नही आ रहा था, शरीर थिसिल होता जा रहा था निराशा के भाव उस पर हाबी होते जा रहे थे |
सोचते-सोचते वो अचानक जैसे उसने कुछ फैसला किया और अपनी आँखों को आँचल से पोंछा रोते-रोते आँखे फूल गयीं थीं और बुरी तरह से जल रहीं थीं | उसके चेहरे पर एक दृढ़ संकल्प था | अगर वो इतनी कठिन परिस्थियों से गुजर कर कर ‘सब’ के लिए सब कुछ कर सकती है तो स्वयं के लिए क्यों नहीं, अब उसे खुद के लिए जीना है, तलाशेगी वो अब खुद के लिए चमकता हुआ नीला आसमान जो खुद उसका हो किसी का दिया हुआ ना हो | आगे बढ़ कर उसने खिड़की पर से मोटा पर्दा हटा दिया और सिर उठा कर आसमां की ओर देखा रात गुजर चुकी थी, सुर्य देव मुस्कुराते हुए उसके स्वागत को खड़े थे उनकी नारंगी रश्मियाँ उसे नहला रहीं थीं | नीले आसमां पर जैसे किसी ने नारंगी रंग उछाल दिया हो और तभी ढेरों परिन्दे एक साथ सुदूर अनन्त की ओर उड़ चले जैसे उन्हें भी अंधेरों से निजात मिली हो और आजाद हो वो गगन में सैर को निकले हों |

मीना पाठक 

मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by अरुन 'अनन्त' on May 16, 2014 at 3:06pm

आदरणीया मीना जी बहुत ही सुन्दर संदेशप्रद कथा है प्रयासरत रहिये लघु भी हो जाएगी. सादर बधाई स्वीकारें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 15, 2014 at 6:13pm

स्त्री की व्यथा को आपने बयान खूब किया अंत में एक सार्थक संदेश भी दिया है बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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