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हर अदा, हवाओं की शोखियाँ समझती हैं
बेखबर नहीं सबकुछ पत्तियाँ समझती हैं
थरथराने लगती हैं इक ज़रा छुअन से ही
बागबाँ है या भँवरे डालियाँ समझती हैं
दर्द कितना है कैसा लग रहा है मुझको ये
मेरे ज़ख़्म से लिपटी पट्टियाँ समझती हैं
आजकल निगाहों को क्या हुआ ज़माने की
तज़्रिबे को चेहरे की झुर्रियाँ समझती हैं
हसरतें हदों को ही भूलने लगी हैं आज
फिक्र को बड़ों की वो बेड़ियाँ समझती हैं
ख़ौफ़ के मनाज़िर को सुब्ह की ख़बर मे यूँ
दौड़ती हुई नज़रें सुर्खियाँ समझती हैं
गर दुआ भी दी जाये तो बुरा लगे है क्यूँ
नफ़रतें मुहब्बत को गालियाँ समझती हैं
क्यूँ उन्हें मेरी बातों से शिकायतें इतनी
हाले दिल मेरा मेरी सिसकियाँ समझती हैं
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
क्या बात है जनाब शिज्जु भाई, हमेशा की तरह लाजवाब प्रस्तुति.... हर शेर कीमती है ।
बहुत मुबारकबाद ।
शिज्जू जी
नफरते मुहब्बत को गालिया समझती है i बहुत खूब i पूरी गजल पर फ़िदा हूँ i आमीन i
आदरणीय शिज्जू जी
ख़ौफ़ के मनाज़िर को सुब्ह की ख़बर मे यूँ
दौड़ती हुई नज़रें सुर्खियाँ समझती हैं...बेहतरीन
भावों से भरी इस सुंदर ग़ज़ल के लिए मेरी तरफ से हार्दिक शुभकामनायें सादर
वाह! क्या खूब गजल कही है आपने, हर एक शेर दिल को छू जाता है तहे दिल से बधाई आदरणीय शिज्जू जी
हृदय स्पर्शी गजल लिखी है आपने शिज्जू जी।
सादर बधाई आपको।
बहुत बहुत उम्दा ..... हार्दिक बधाई आ० शिज्जू जी | सादर
हर अदा, हवाओं की शोखियाँ समझती हैं
बेखबर नहीं सबकुछ पत्तियाँ समझती हैं.....बहुत खूब.
ख़ौफ़ के मनाज़िर को सुब्ह की ख़बर मे यूँ
दौड़ती हुई नज़रें सुर्खियाँ समझती हैं
वाह्ह क्या बात है खूब कही है, बहुत बहुत बधाई।
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