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मुल्क़ में किस्सा इक नया तो हो
अब अज़ीयत की इंतिहा तो हो अज़ीयत =यातना
ग़म से किसको मिली नजात यहाँ
मर्ज़ कहते हो फिर दवा तो हो
जी उठेगा फिर अपनी राख से पर
वो मुकम्मल अभी जला तो हो
दीनो-ईमाँ की बात करते हैं
हो हरम दिल में बुतकदा तो हो हरम =मस्जिद, बुतकदा =मंदिर
ज़ह्र अपनी ज़बान से छूकर
कह रहे हैं कि तज़्रिबा तो हो
रुख़ हवा का बदल गया है “शकूर”
किस तरफ चलना है पता तो हो
- मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया मंजरी जी आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय सुरेन्द्र सर रचना की सराहना द्वारा उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय सौरभ सर रचना पर विस्तृत टिप्पणी से उत्साह काफी बढ़ा आपका तहे दिल से शुक्रिया कि आपने मेरी रचना को मान दिया मेरा उत्साहवर्धन किया :-)
दीनो-ईमाँ की बात करते हैं
हो हरम दिल में बुतकदा तो हो
रुख़ हवा का बदल गया है “शकूर”
किस तरफ चलना है पता तो हो
बहुत सुन्दर गजल शुकूर जी दाद कुबूल करें
भमर ५
अब क्या कहूँ, जब सबकुछ शानदार बन कर सामने आये ! क्या ग़ज़ल हुई है साहब ! .. कमाल !
कौन होगा जो इन शेरों पर झूम न जाये -
जी उठेगा फिर अपनी राख से पर
वो मुकम्मल अभी जला तो हो
ज़ह्र अपनी ज़बान से छूकर
कह रहे हैं कि तज़्रिबा तो हो
लेकिन, जिस शेर में आपकी अहम मौज़ूदग़ी है, जो आपके कहे में विशेष सुगंध जीता है, वो इस ग़ज़ल का मतला है -
रुख़ हवा का बदल गया है “शकूर”
किस तरफ चलना है पता तो हो ... . वाह वाह वाह ! वाह भाई वाह !
अब क्या कहूँ कि इस ग़ज़ल पर दाद लीजिये ?!
ये तो खुद ही बनता है भाई. .. :-)))
आदरणीय वीनस जी रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय उमेश जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
वाह बेहतरीन ग़ज़ल है
वाहहहहहहह बहुत उम्दा गजल कही है सर
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