“माँ ! मैं तुम्हारे और दोनों भाइयों के हाथ जोडती हूँ, मुझे कुछ पैसे दे दो या दिलवा दो.. भगवान् के लिए मदद करो.. चार दिनों बाद बेटी की शादी है..”
“देखो दीदी..! .. हमने हर समय तुम्हारा बहुत साथ दिया है.. यहाँ तक कि तुम्हारी दोनों बेटियों की शादी का पूरा खर्च वहन करने की सोचे थे. बेटे को भी काम-धंधे पर लगवा देंगे.. लेकिन तुमने निकम्मे जीजाजी.. और लोगो के कहने पर हम पर ही मुकदमा दायर कर दिया.. ? क्या तो हिस्सा पाने की खातिर ?!! ”
“माँ, तुम तो कुछ बोलो, तुम्ही समझाओ न.. इन दोनों को.. ”
“ बेटी..! मैं क्या समझूँ.. मैं क्या समझाऊँ ? यह सब तो तुम्हें सोचना था. ये जो तेरे भाइयों को पैसा मिला है न.. वो बाँध में जमीनों के डूबने के ऊपर पुनर्स्थापन का पैसा है.. और, मुझे तो इन्हींके साथ रहना है.. “
जितेंद्र 'गीत'
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आपको रचना पसंद आई, लेखनकर्म सार्थक हुआ आदरणीय विजय निकोर जी. आपका ह्रदय से आभार
सादर!
आपकी लघु कथा बहुत ही अच्छी लगी। बधाई, आदरणीय जितेन्द्र जी।
रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय सौरभ जी, स्नेह व् मार्गदर्शन बनाये रखियेगा
सादर!
एक सार्थक प्रस्तुति के लिए हृदय से धन्यवाद, जितेन्द्र भाई.. .
शुभेच्छाएँ
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीया अन्नपूर्णा दीदी
सदर!
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज जी
सादर!
सुंदर लघु कथा !! बहुत बधाई आपको प्रिय जितेंद्र जी ।
आदरणीय जितेन्द्र भाई , सच मे आज समाज मे नारी की की स्थिति ऐसी ही है , जाये तो किधर जाये । सुन्दर सार्थक पस्तुति के लिये बधाइयाँ ॥
आपका हार्दिक आभार आदरणीय डा. गोपाल जी
सादर!
आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है आदरणीया डा. प्राची जी, आपका हार्दिक आभार
सादर!
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