तुम हर पल जीतना चाहते हो 
 हारना तुम्हारी फितरत में नहीं है 
 कोई तुम्हारी युद्ध से 
 लौटी तलवार को 
 छूना नहीं चाहता 
 तुम्हारे रक्त-रंजित  हाथ 
 अब तुम्हारी माँ भी 
 नहीं पहचानती.
 तुम्हारे बाल सखा कबके 
 विलीन हो गए रणभूमि में 
 तुम्हारी जीत के लिए.
 कोई तुम्हारे कमजोर 
 पलों में
 साथ नहीं देना चाहता 
 इतनी जीत का क्या करोगे?
डॉ. विजय प्रकाश शर्मा
(मौलिक व अप्रकाशित )
  
Comment
धन्यवाद जितेंद्र जी.
इंसान ने कभी जीत कर कहाँ कुछ पाया है, बहुत प्रभावशाली पंक्तियाँ. बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय प्रकाश जी
आपका बहुत बहुत आभार डॉ. प्राची
बहुत खूबसूरत चिंतन प्रधान रचना
ऐसी जीत भी वास्तव में किस काम की जहां कोइ अपना ही साथ न हो...
हारना तेरी फितरत में ही नहीं...... मुझे लगता है यहाँ 'तेरी' की जगह तुम्हारी होना चाहिए
रक्त रंजित में भी टंकण त्रुटी रह गयी है, कृपया सही कर लें
इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारिये आ० विजय प्रकाश शर्मा जी
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