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कई बाग़ सूने हुये यहाँ , कई फूलों में हैं उदासियाँ
कई बेलों को यही फिक्र है , कि कहाँ गईं मेरी तितलियाँ
कभी दूरियाँ बनी कुर्बतें, कभी कुरबतें बनी दूरियाँ
ये दिलों के खेलों ने दी बहुत , हैं अजब गज़ब सी निशानियाँ
कभी आप याद न आ सके, कभी हम ही याद न कर सके
रहे शौक़ में हैं लिखे मिले , कई गम ज़दा सी रुबाइयाँ
वो हक़ीक़तें बड़ी तल्ख़ थीं, चुभीं खार बनके इधर उधर
सुनो वो चुभन ही सुना रही ,है हक़ीक़तों की कहानियाँ
वही हालतें हैं गरीब की , वही चाहतें हैं डरी- मरी
कहीं तिफ्ल भूख से मर गया , कहीं बिक रहीं हैं जवानियाँ
मेरा ज़ख्म पीठ का भर गया , मेरा ताप सर से उतर गया
नहीं भर रहीं हैं खुदी हुई, वो जो दरमियान थी खाइयाँ
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
बहुत बेहतरीन गजल, बधाई स्वीकारें आदरणीय गिरिराज जी
छोटे भाई गिरिराज
गज़ल के सभी शेर लाजवाब , हार्दिक बधाई
हिंदी हो या उर्दू कुछ शब्दों के मायने देना पाठकों के लिए सुविधाजनक होता है,
आदरणीया मीना जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय वीनस भाई , बहुत दिनो के बाद आपकी उपस्थिति से आनंदित हूँ , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय अरुण भाई , गज़ल पर आपकी उपस्थिति सुखद है , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना के लिएय आपका हार्दिक आभार ॥ अभी आप अग्रजों से बहुत कुछ् सीखना है , स्नेह बनाये रखियेगा ॥
आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल की तारीफ़ और हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
बहुत खूब ...बहुत बहुत मुबारकबाद | सादर
वाह सुभानअल्लाह
जिंदाबाद
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