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ग़ज़ल ( गिरिरज भंडारी ) --वही चाहतें हैं डरी- मरी

11212      11212       11212     11212 

कई बाग़ सूने हुये यहाँ , कई फूलों में हैं उदासियाँ

कई बेलों को यही फिक्र है , कि कहाँ गईं मेरी तितलियाँ

कभी दूरियाँ बनी कुर्बतें, कभी कुरबतें बनी दूरियाँ

ये दिलों के खेलों ने दी बहुत , हैं अजब गज़ब सी निशानियाँ

कभी आप याद न आ सके, कभी हम ही याद न कर सके

रहे शौक़ में हैं लिखे मिले , कई गम ज़दा सी रुबाइयाँ  

वो हक़ीक़तें बड़ी तल्ख़ थीं, चुभीं खार बनके इधर उधर

सुनो वो चुभन ही सुना रही ,है हक़ीक़तों की कहानियाँ

वही हालतें हैं गरीब की , वही चाहतें हैं डरी- मरी

कहीं तिफ्ल भूख से मर गया , कहीं बिक रहीं हैं जवानियाँ

मेरा ज़ख्म पीठ का भर गया , मेरा ताप सर से उतर गया

नहीं भर रहीं हैं खुदी हुई,  वो जो दरमियान थी खाइयाँ 

*******************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 13, 2014 at 11:18pm

बहुत बेहतरीन गजल, बधाई स्वीकारें आदरणीय गिरिराज जी

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on June 13, 2014 at 7:24pm

छोटे भाई गिरिराज

गज़ल के सभी शेर लाजवाब , हार्दिक बधाई

 हिंदी हो या उर्दू कुछ शब्दों के मायने देना पाठकों के लिए सुविधाजनक होता है,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 13, 2014 at 6:28pm

आदरणीया मीना जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 13, 2014 at 6:27pm

आदरणीय वीनस भाई , बहुत दिनो के बाद आपकी उपस्थिति से आनंदित हूँ , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 13, 2014 at 6:25pm

आदरणीय अरुण भाई ,  गज़ल पर आपकी उपस्थिति सुखद है , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 13, 2014 at 6:24pm

आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना के लिएय आपका हार्दिक आभार ॥ अभी आप अग्रजों से बहुत कुछ् सीखना है , स्नेह बनाये रखियेगा ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 13, 2014 at 6:22pm

आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल की तारीफ़ और हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

Comment by Meena Pathak on June 13, 2014 at 6:06pm

बहुत खूब ...बहुत बहुत मुबारकबाद  | सादर 

Comment by वीनस केसरी on June 13, 2014 at 4:48pm

वाह सुभानअल्लाह

जिंदाबाद

Comment by Abhinav Arun on June 13, 2014 at 4:44pm
वाह वाह आ. गिरिराज जी ! बेहतरीन ..क्या अशार हैं लाजवाब --
मेरा ज़ख्म पीठ का भर गया , मेरा ताप सर से उतर गया

नहीं भर रहीं हैं खुदी हुई, वो जो दरमियान थी खाइयाँ ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए ढेरों मुबारकबाद !!

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