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ग़ज़ल -कि साज़िश के निशाने पर ही हमने दिन गुजारे हैं

 १२२२      १२२२     १२२२       १२२२

हमें माझी की आदत है उसी के ही सहारे हैं

डुबो दे बीच में चाहे, वो चाहे तो किनारे हैं

मिटाने को हमें अब जा मिला घड़ियाल से माझी

कि साज़िश के निशाने पर ही हमने दिन गुजारे हैं

चमकती चीज ही मिलती रही सौगात में हमको

समझ बैठे ये धोखे से कि किस्मत में सितारे हैं

सियासत जो हमारे घर में ही होने लगी है अब

तभी हर बात में कहने लगे वो  हम तुम्हारे हैं

अदावत घर में ही होने लगे तो क्या करें साहिब

बताएं क्या कि हर सूरत हमी अपनों से हारे हैं

संजू शब्दिता  मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by sanju shabdita on June 17, 2014 at 7:32pm

हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सुशील सरन जी ..आपने  मेरे नाम के स्थान पर कुंती जी का नाम लिख दिया है ॥ खैर. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सुशील सरन जी . 

Comment by sanju shabdita on June 17, 2014 at 7:27pm

बहुत-बहुत शुक्रिया आ0 कुंती जी .... क्या करूँ कभी कभी सियासत भी हो ही जाती है । सादर

Comment by Sushil Sarna on June 17, 2014 at 7:17pm

वाआआआअह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल …… बधाई आदरणीया कुंती जी 

Comment by coontee mukerji on June 17, 2014 at 5:04pm

सियासत जो हमारे घर में ही होने लगी है अब

तभी हर बात में कहने लगे वो  हम तुम्हारे हैं.....क्या बात है.आप भी कम सियासत नहीं कर रही.अच्छी गज़ल लिखकर. सादर

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