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आ० डॉ० विजय शंकर जी
जीवन में खोने-पाने के एहसास को लेकर कई कई दार्शनिकों नें बहुत बड़ी बड़ी बातें की ......हर इंसान का अनुभवों के सापेक्ष अपना ही मानना होता है..
लेकिन 'गीता' से जो दर्शन है.......// तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो? तुमने जो लिया यहीं से लिया , जो दिया यहीं पर दिया//... उसपर चिंतन बुद्धि मन भाव सभी को सदिश करता है.
.....हर आगत अनुभव में समृद्धि ही तो है और प्रयोजन पूर्ण होने के बाद विगत हो जाती है.
ऐसी ही समृद्ध वैचारिकता को स्वर देती आपकी प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारिये
जो खो गया , वो क्या ले गया ,
हाँ, अपनी स्मृतियाँ छोड़ गया ||
कुछ मीठी , कुछ तीखी,
पर जीने के लिए बहुत
काफी है , एक सहारे की तरह............बहुत सुंदर, सच! यादों के सहारे भी जीवन कट ही जाता है. हार्दिक बधाई आपको आदरणीय डा.विजय जी
गर खो दिया , तो वही तो पाना है ,
जिसको औरों ने गवाना जाना है ||
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मानव रह गया समेटते ,
कहाँ समेट पाया सारा ,
जब अपना खोया सारा
उस दिन पाया जग सारा ||गहन चिंतन के सागर में डुबकियाँ लगवाती आपकी ये रचना बहुत शानदार है ,आपको बहुत -बहुत बधाई आदरणीय
बहुत सुन्दर रचना .. सादर बधाई
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