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ज़िन्दगी की ढिबरी ... (विजय निकोर)

ज़िन्दगी की ढिबरी

डूबती संध्याओं की उदास झुकी पलकों में

एक रिश्ते-विशेष के साँवलेपन की झलक

बरतन पर लगी नई कलाई की तरह

हर सुबह, हर शाम और रात पर चढ़ रही, मानो

गम्भीर उदास सियाह अन्तर्गुहाओं में व्याकुल

मूक अन्तरात्मा दुर्दांत मानव-प्रसंगों को तोल रही

रिश्ते के साँवलेपन में समाया वह दानवी दर्द

अतीत की आँखों से टपक-टपक कर अब

क्यूँ है मेरी रुँधी हुई आवाज़ में छलक रहा

बहा होगा आज फिर से ज़रूर घड़े के बाहर

हृदय में सोई व्यथित वेदना का अन्तर्प्रवाह

सोचते घबरा जाता है भयभीत अंत:स्वर मेरा

अतीत के क्रूरतम कटुतम आत्मीय अनुभव

साक्षी वह मेरी जीवनावस्था के प्रमाण अनुक्षण

उनको भुला देना, मिटा देना, है समयानुकूल, पर

स्नेह के कठिन निषक्रम मार्गों को अनुभूत करती

निज से लड़ रही लहर एक दर्द की दोड़ जाती है

छा जाती है सांझ संकल्पों पर, लिए उदासी का रंग

हमारे बचपन के स्नेह के रहस्य को छिपाय

किराये के उन सुकुमार स्वपनों की आत्मा,

द्रुतगामी समय पर फैलता घुँघराला कुहरा ...

ज़िन्दगी की ढिबरी में अब तेल कम बचा है

उखड़ी ज़िन्दगी के उदयास्त से उद्विग्न

मेरे कन्धे पर यूँ सिर टेक कर प्रिय

संतप्त, तुम कब तक रोओगी ?

                ---------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 1059

Comment

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Comment by vijay nikore on July 13, 2014 at 9:26pm

//अनुभूतियों को सस्वर करती आपकी अभिव्यक्तियाँ अपनी नैसर्गिक टीस से पाठक के मन को कचोटती हैं, आदरणीय.

यही ज़िन्दा टीस आपकी रचनाओं का संबल है। //

आपके अंतस से उदगारित स्नेहसिक्त अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति और सराहना के लिए मैं आभारी हूँ, आदरणीय सौरभ जी।

Comment by vijay nikore on July 7, 2014 at 12:03pm

//

बड़ी ही हृदय स्पर्शी रचना की है आपने।

आपकी अद्वितीय कल्पना और लेखनी को प्रणाम है।

इस गगम्भीर अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई।//

इतनी अलंकारिक सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया विन्दु जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 2:40am

निर्दोष और सात्विक भावनाएँ आत्मीय स्पर्शों से आजीवन मुलायम होती रहती है. भावनाएँ जीवन के लगातार रीतते पलों की मुखापेक्षी नहीं हुआ करती. तभी तो वे प्रेम निवेदन की नित नवीन अनुभूतियों को इतनी गहराई से जीती हैं. उन्हीं अनुभूतियों को सस्वर करती आपकी अभिव्यक्तियाँ अपनी नैसर्गिक टीस से पाठक के मन को कचोटती हैं, आदरणीय.

यही ज़िन्दा टीस आपकी रचनाओं का संबल है.

एक बार फिर से सात्विक छुअन ने अदम्य विश्वास से अपने होंठ धरे हैं. एक बार फिर शब्द-शब्द प्रकम्पित हो प्राणवान हो चला है. मन शांत है.

आभार, आदरणीय..

Comment by vijay nikore on July 4, 2014 at 2:49pm

//जीवन में प्रेम और प्रेम में विरह के एहसास और उन एहसासों में सिमटती ज़िन्दगी ..... आपकी ढिबरी का तेल कभी कम न पड़े यही दुआ करुँगी ....आपकी रचनाएँ मन झंझोर देती है ..... क्या कहूँ बस .//

इस प्रकार इतना मान देने के लिए हर्दयतल से आपका आभार, आदरणीया प्रियंका जी।

Comment by Vindu Babu on July 3, 2014 at 12:59am

कई बार मैंने देखा है आदरणीय  कि रचना मे उन्नत शब्दों और उच्च स्तरीय बिम्बों के साथ गहन प्रस्तुति और भावों की सघनता में सामंजस्य बना पाना आसान नहीं होता।

अक्सर रचनाओं में मौलिकता प्रभावित हो जाती है लेकिन आपकी रचनाओं में ऐसा नहीं होता। रचना के सघन भाव सदैव पाठक को ठहराव देते हैं।

बड़ी ही हृदय स्पर्शी रचना की है आपने।

आपकी अद्वितीय कल्पना और लेखनी को प्रणाम है।

इस गगम्भीर अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई।

सादरर

Comment by Priyanka singh on July 2, 2014 at 4:50pm

हमारे बचपन के स्नेह के रहस्य को छिपाय

किराये के उन सुकुमार स्वपनों की आत्मा,

द्रुतगामी समय पर फैलता घुँघराला कुहरा ...

ज़िन्दगी की ढिबरी में अब तेल कम बचा है

उखड़ी ज़िन्दगी के उदयास्त से उद्विग्न

मेरे कन्धे पर यूँ सिर टेक कर प्रिय

संतप्त, तुम कब तक रोओगी ?

आहा सर ....क्या कहूँ ....अब तक ५-से ७ बार पढ़ चुकी हूँ फिर भी नहीं समझ पा रही क्या कहूँ ....जीवन में प्रेम और प्रेम में विरह के एहसास और उन एहसासों में सिमटती ज़िन्दगी ..... आपकी ढिबरी का तेल कभी कम न पड़े यही दुआ करुँगी ....आपकी रचनाएँ मन झंझोर देती है ..... क्या कहूँ बस .... नमन आपके लेखन और आपकी सोच को ....नमन ....

Comment by vijay nikore on July 2, 2014 at 7:32am

//अति गहन भावों का एक और सृजन//

आदरणीय विजय मिश्र जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on July 2, 2014 at 7:30am

//बहुत ही सुंदर मनोभाव के साथ सुंदर रचना//

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्न्पूर्णा जी।

Comment by vijay nikore on July 1, 2014 at 3:21pm

//ज़िन्दगी की ढिबरी के पूरा तेल होने से लेकर  अब कम तेल बचने तक की अमिट प्रेम की विरह गाथा को लाजवाब शब्द मिले हैं //

रचना के मर्म तक पहुँच कर उसे सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई गिरिराज जी।

Comment by vijay nikore on July 1, 2014 at 3:18pm

//अनूठी रचना.....यह आप की हो सकती है//

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया कुंती जी।

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