( गुरुजनों की समीक्षार्थ प्रस्तुत )
तृष्णा मृग की ज्यों उसे, सहरा में भटकाय |
तपती रेत में देता , जल का बिम्ब दिखाय ||
जल का बिम्ब दिखाय, बुझे पर प्यास न उसकी|
त्यों माया से होय , बुद्धि कुंठित मानव की ||
प्रज्ञा का पट खोल, नाम ले राधे - कृष्णा |
सुमिरन करते साथ, मिटेगी हरेक तृष्णा ||
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
देता तपती रेत में .....कर सकती हैं | प्रयास करती रहें बहुत जल्दी सफल होंगी बाकि आ० गोपाल जी ने शिल्प विधान बता दिया है उसी पर प्रयास करें ...फिलहाल इस भाव पूर्ण कुण्डलिया के लिए बहुत- बहुत बधाई|
शालिनी जी
दोहा दीखता आसान है इसका शिल्प बहुत कठिन है i विषम चरणों में इसकी रचना 4 +4 +3+2 या 3+ 3 +2 + 3 +2 होती है और (चरणांत में सगण (११२ )रगण(२१२ ) या नगण (१११ )में एक का होना आवश्यक है i इसके साथ सम चरणों का विन्यास 4 +4 +3 या 3+ 3 +2 + 3 होगा i अब अपना दोहा देखिए i दुसरा द्वतीय चरण है - तपती रेत में देता -यहाँ मात्रिक विन्यास 4 + 3 +2 +4 है जो गलत है i दोहे में प्रथम विन्यास दो बार आता है इसी से यह दोहा कहलाता है i साथ ही आपका चरणांत (2 2 2 )है जो दोहे में नहीं होता i अब अगर ऐसा कर दे -तप्त रेत में भी उसे - तो विन्यास 3+ 3 +2 + 3 +2 हो जायेगा और चरणांत
भी (२१२) सही हो जायेगा i आप दोहे का अच्छा अभ्यास कर ले तब रोला छंद की बात करेंगे i रचना में घबराये नहीं i आप में छमता है i Be brave.
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