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ताज़ा लहू के सुर्ख़ निशाँ छोड़ आया हूँ
हर गाम एक किस्सा रवाँ छोड़ आया हूँ
वो रोज़ था, मुझे न मयस्सर ज़मीं हुई
ये हाल है कि अब मैं जहाँ छोड़ आया हूँ
परदेस में लगे न मेरा मन किसी तरह
बच्चों के पास मैं दिलो-जाँ छोड़ आया हूँ
उड़ती हुई वो ख़ाक हवाओं में सिम्त-सिम्त
जलता हुआ दयार धुआँ छोड़ आया हूँ दयार= मकान
मौजूदगी को मेरी तरसते थे रास्ते
चलते हुये उन्हें मैं कहाँ छोड़ आया हूँ
दुश्वारियाँ सफर में बहुत हैं ''शकूर'' पर
मैं हौसलों के दम पे अमाँ छोड़ आया हूँ अमाँ= सुरक्षा
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय निकोर सर आपका तहेदिल से शुक्रिया स्नेह बनाये रखें
//लहू के सुर्ख़ निशाँ छोड़ आया हूँ
हर गाम एक किस्सा रवाँ छोड़ आया हूँ//
इस अच्छी गज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
आदरणीय गिरिराज सर रचना पर आपकी आमद से ही खुशी मिलती है आपका बहुत बहुत शुक्रिया स्नेह बना रहे।
आदरणीय निलेश भाई आप जैसे रचनाकार के द्वारा सराहना मिलना भी उत्साहवर्धन का एक कारण है आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय जितेन्द्र जी आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय गणेश जी आपकी आमद एवं हौसलाअफ़्ज़ाई के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीया वंदना जी रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीया राजेश दीदी उत्साहवर्धक शब्दों द्वारी रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय शिज्जु भाई , बहुत खूब , लाजवाब ग़ज़ल कही ।
वो रोज़ था, मुझे न मयस्सर ज़मीं हुई
ये हाल है कि अब मैं जहाँ छोड़ आया हूँ
दुश्वारियाँ सफर में बहुत हैं ''शकूर'' पर
मैं हौसलों के दम पे अमाँ छोड़ आया हूँ ----------- हार्दिक बधाई स्वीकार करें ॥
बहुत खूब शिज्जू जी ..मुश्किल बह्र, मुश्किल काफ़िया और शानदार ग़ज़ल .
बहुत बहुत बधाई
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