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जुबाँ से विष उगलते और मन में नफरतें होतीं
न तू होता अगर दिल में न तेरी रहमतें होतीं
नहीं जीवन बनाता तू धड़कता फिर कहाँ से दिल
न कोई ख़्वाब ही पलते न कोई हसरतें होतीं
जो तेरे हाथ शानों पर नहीं होते अगर मेरे
कहाँ से होंसला होता कहाँ ये हिम्मतें होतीं
बिना मतलब यहाँ तो पेड़ से पत्ता नहीं हिलता
ज़माना साथ क्या देता बड़ी ही जिल्लतें होतीं
न तुझ में आस्था होती न तेरा डर अगर होता
कहाँ होती मुहब्बत और कैसी कुर्बतें होतीं
बड़ा अच्छा किया कद अर्श को ऊँचा दिया तूने
नहीं तो बंट चुका होता लगा दी कीमतें होतीं
तेरी पाकीजगी, कमसिन ज़िया को लूट लेते सब
सितारों चाँद सूरज की दरकती अस्मतें होतीं
कज़ा की डोर हाथों में नहीं लेता अगर मालिक
अमर होती कहर ढ़ाती विषैली ताकतें होतीं
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
महनीय
बहुत बेहतरीन गजल हुई है i हर शेर मुकम्मिल है i आपकी कलम को दाद देता हूँ i
जितेन्द्र भैय्या ग़ज़ल पर पहले तो सर्वप्रथम टिपण्णी देने का आभार लो ,फिर आपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय तल से बहुत- बहुत आभार सस्नेह शुभकामनायें
बिना मतलब यहाँ तो पेड़ से पत्ता नहीं हिलता
ज़माना साथ क्या देता बड़ी ही जिल्लतें होतीं.............. सच! बिना मतलब के कुछ भी नही होता है
बड़ा अच्छा किया कद अर्श को ऊँचा दिया तूने
नहीं तो बंट चुका होता लगा दी कीमतें होतीं...........बहुत सुंदर
आपकी इस बेहतरीन गजल पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश दीदी
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