फूल कैसे खिलें ? ( एक अतुकांत चिंतन )
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प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर
मुर्दों की तरह , यंत्रवत
तो भी खुश हैं हम
शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की
झूठी ही सही
और झूठी इसलिये
क्यों कि बेहोशी का सुख हो या दुख , झूठा ही होता है
इसलिये भी, क्योंकि
हम स्वयँ जीते ही कहाँ है
जीती तो है एक भीड़ हमारी जगह ,
भीड़ विचारों की , तर्कों – कुतर्कों की
भीड़ शंकाओं- कुशंकाओं की , डर की
भीड़ इच्छाओं – अनिच्छाओं की,
भीड़ जिसका विवेक नही होता ,
भीड़ कभी मरती नहीं
शक्लें बदल लेतीं हैं और जीती रहती हैं , हमेशा
इसीलिये हम स्वयँ कभी जी ही नही पाते
भीड़ ही जीती है हर समय , हर पल हमारी जगह
भीड- मरे तब तो स्वयँ जियें न !
स्वयँ जीते तो पता लग ही जाता
हाथ ही मिले थे , निर्जीव
प्रेम तो बहा ही नही , न इधर से उधर .न ही उधर से इधर
फिर फूल कैसे खिलें ?
प्रेमाश्रु कैसे बहें?
ह्रदय कैसे मिलें ?
निर्जीव हाथों के मिलने से
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर
मुर्दों की तरह , यंत्रवत
तो भी खुश हैं हम
शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की
झूठी ही सही------बेहतरीन भाव उकेरे है यहाँ आपने आदरणीय गिरिराज जी
स्वयँ जीते तो पता लग ही जाता
हाथ ही मिले थे , निर्जीव
प्रेम तो बहा ही नही , न इधर से उधर .न ही उधर से इधर
फिर फूल कैसे खिलें ?
प्रेमाश्रु कैसे बहें?
ह्रदय कैसे मिलें ?
निर्जीव हाथों के मिलने से------ अप्रितम ! झूठी संवेदनाओं के निर्वाह में कभी भी फूल नहीं खिला करते है को आपने यहाँ जीवंत कथ्य दिया है . इस कालजयी रचना के लिए ह्रदय से बधाई प्रेषित है .
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
बहुत सुन्दर , हृदय को छू लेने वाला कहन है ....पर शिल्प थोड़ा गड़बड़ा गया... कथ्य का फिर फिर दोहराया जाना रचना को थोड़ा सा बोझिल कर रहा है.... बस भाव को स्पर्श मात्र करना था लेकिन अक्सर जिस सांद्रता से भाव हमारे मन में होते हैं..उसे जस का तस व्यक्त करने के क्रम में ऐसा हो जाता है...
लेकिन कथ्य बहुत पसंद आया
हार्दिक बधाई आदरणीय
आदरणीय सौरभ भाई , आप क्षमा न मांगें भाई जी , अपनी एक खुशी छिनते देख निराशा में कहे गये मेरे शब्द थे । बस आप मेरे लिये वही रहें जो हैं , जैसे हैं बाक़ी सब ठीक है ॥ हमेशा शब्द वही नही कह पाते जो भाव होते हैं , कम से कम मै तो नही कह पाता , शायद इसी लिये समझ भी कम ही पाता हूँ । सादर !
मेरा हतभाग्य आदरणीय.
मैंने आपके कहे पर ऐसा कहा तो, लेकिन इंगित मेरी अपनी दशा और परिस्थितियाँ ही हैं जिनके लिहाज को मैंने आपसे साझा किया है,आदरणीय. संप्रेषित कथ्य सटीक न रहा इसका हार्दिक अफ़सोस है. क्षमा.. .
वैसे इस पोस्ट पर हम विन्दुवत हों .. . :-)))
सादर
अब नहीं.. . :-)))
आदरणीय सौरभ भाई , लगता है मुझसे भाव व्यक्त करने के लिये शब्दों के चुनाव मे ग़लती हो गई शायद , मै आपके उन शब्दों से मिली आत्मिक खुशी जाहिर करने मे शायद फेल हो गया । इसीलिये आपको ' अब नही ' कहना पड़ा । अगर ऐसा है तो इस कम अक़ल को क्षमा करें । सादर ।
//आप हर उस भाषा मे कह सकते हैं जो स्नेह की परिधि मे है , डांटना , फटकारना , दुत्कारना सभी कुछ बस केंद्र मे स्नेह रहे //
अब नहीं.. . :-))))
अपनत्व बना रहे, आदरणीय.
:-)
आदरणीय सौरभ भाई , स्नेह वश आपने कुछ जादा ही नम्बर दे दिया है , खुशी हो रही है । अतुकांत विधा मे मै कहाँ हूँ ये मै जानता हूँ भाई । अभी आप से बहुत कुछ सीखना है धीरे धीरे । जहाँ तक अधिकारों का सवाल है आप निश्चिंत रहें , सीमा रेखा बहुत दूर है , आप हर उस भाषा मे कह सकते हैं जो स्नेह की परिधि मे है , डांटना , फटकारना , दुत्कारना सभी कुछ बस केंद्र मे स्नेह रहे॥सादर ॥ ॥॥आभार आपका ॥॥
आपने B+ पाये. .. :-))
हा हा हा हा... .
आप पर इतना अधिकार तो है ही आदरणीय, कि आपसे इस लहजे में बात कर सकूँ, कि आपको मैं ग्रेड दे सकता हूँ.
(ऐसों में आप या महज एक-दो ही रह गये हैं अब.. हा हा हा हा.. )
खैर.. .
कविता में आगे के कथ्य-प्रवाह में यदि पुनरावृति न होती और आपने शब्द संयम बनाये रखा होता तो यह रचना आत्मीय सम्बन्धों पर तथ्यात्मक मंतव्य रखती नज़र आती. लेकिन एक सशक्त प्रयास के लिए सादर बधाइयाँ.
आदरणीया मंजरी जी , चिंतन के अनुमोदन के लिये आपका हार्दिक आभार
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