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जब से उस युवा चींटे के पँख निकले थे वह हवा बातें करने लगा था. उसने सभी परिजनों और मित्रजनो पर अपने नए नए निकले पँखों का रुआब डालना शुरू कर दिया था, उसका आत्मविश्वास देखते ही देखते आत्ममुग्धता का रूप धारण कर गया। इस बदले हुए स्वरूप को देख देख उसकी माँ रूह तक काँप जाती. लाख समझाने पर भी बेटा यथार्थ के धरातल पर आने को तैयार न हुआ तो एक दिन बूढ़ी माँ ने अपनी बहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा "इसे अपने पास रख ले बेटी।" 

(मौलिक और अप्रकाशित)

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:40pm

दिल से शुक्रिया अग्रज लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:38pm

आ० लक्ष्मण धामी जी, रचना के मर्म को समझने और मेरे प्रयास को सराहने के लिए दिल  से आभार।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:35pm

सादर आभार आ० विनय कुमार सिंह जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:34pm

रचना पर आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु सादर आभार भाई जितेंद्र जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:33pm

धन्यवाद प्रिय गीतिका, लेकिन माँ की बात समझी कहाँ गई ? तभी तो सफ़ेद जोड़े की नौबत आ गई.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:28pm

आ० राजेश कुमारी जी, यहाँ माँ एक प्रतीक है. प्रतीक है एक प्रौढ़ सोच की, घर/समूह के ज़िम्मेवार मुखिया की जिसे खुशफहमो के अंजाम का भली भांति अंदाजा है. बहरहाल, आपकी सराहना से बेहद ख़ुशी हुई. आपकी गुणग्राहकता  और सदशयता का दिल से आभार।                


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:28pm

आप ने बिलकुल सही फ़रमाया आ० विंदू जी,  यही आत्ममुग्धता मेरी इस रचना का केंद्र बिंदु है. रचना पसंद करने के  हार्दिक आभार।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:28pm

सादर धन्यवाद आ० मंजरी पाण्डेय जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:28pm

आ० नादिर खान जी, भले ही लघुकथा में एक विशेष क्षण की बात होती है लेकिन यह अक्सर अपने अंदर एक पूरा उपन्यास समाये हुए होती है. आपको लघुकथा आई, आपका दिल से शुक्रिया।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:27pm

आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, रचना को समय देने और मान बख्शने हेतु दिल से शुक्रिया। ओबीओ पर हम दूसरे से ही तो सीख रहे हैं.

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