"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."
"बहुत बहुत शुक्रिया."
"लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"
"बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."
"तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"
"घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था, उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
वाह वाह | आज के आधुनिक जीवन शैली पर एक करार व्यंग्य | गज़ब गज़ब और गज़ब |
वाह वाह.... कैक्टस और पुराना पेड़...कैक्टस की खातिर काट दिया पुराना पेड़ ....करारा व्यंग्य....ये जीवन की आपाधापी.... आगे निकल जाने की रेस.... अंतर्मन का संगीत भी अनसुना कर बस दौड़ता भागता जीवन .... एक नितांत कोरा और भावशून्य दिखावटी संसार बनाने में पल पल मर रहे है ..... मार रहे है खुद को भी..... बेकार ही इनकी खातिर मर रहे है हम ...... लालच और स्वार्थ के रिश्तों की दरारों में चिपट कर फंस चुके हम..... इस महत्वाकांक्षाओं के स्वार्थी संसार के कैक्टस को पाल रहे है ... और मार रहे है अपने भीतर के उस कुछ को जो बहुत कुछ है या कहे सब कुछ है .... मन पर बहुत गहरा प्रभाव छोडती ये लघुकथा..... आधुनिकता के अंधकूप में धसते हुए सब कुछ हाशिये पर करने को आतुर उन सभी लोगो को बड़ा झटका देती लघुकथा....चवन्नी जो रोते हजारों वो खोते........ इस बेहतरीन, वैचारिक और अनुकरणीय लघुकथा के लिए आपको हृदय से ढेर सारी बधाई और साधुवाद . लघुकथा का मर्म सिखाती आपकी सर्जना...
आदरणीय योगराजभाईजी, क्षमाप्रार्थी हूँ कि आपकी कई दफ़े पढ़ी और गहरे गुनी इस सशक्त और सहज संप्रेषष्य लघुकथा ’कैक्टस’ पर अपनी बातें अब कर पा रहा हूँ. लेकिन आप मेरी हालिया व्यस्तता या विवशता समझते हैं इसलिए मैं आपकी ओर से तनिक संतुष्ट हूँ. पोस्ट हुई रचनाओं को अपने तईं एक-एक कर पढ़ता जा रहा हूँ.
भोजपुरी भाषा में एक कहावत है - हीरा दहाइल जाय, कोयला प छापा. इस कहावत के मर्म को पूरी तरह से शाब्दिक करती यह लघुकथा हमारे मन में गहरे धँस जाती है. आज की आधुनिक दशा ही नहीं हमारे समाज का पूरा विकास ही इस तर्ज़ पर हो रहा है. जहाँ तात्कालिक या क्षुद्र लाभ के लिए सार्थक, दीर्घकालिक और विशद सोच को हाशिये पर फेंका गया दीखता है. क्षोभ तो होता ही है.
आपकी लघुकथाएँ जिस तरह से वैचारिकता का वहन करती हैं उनको सहजता से व्याख्यायित किया जाय तो कई पन्ने भरे जा सकते हैं. लघुकथाओं के गुणों का यह सबसे अहम पहलू है आपकी प्रस्तुतियों में खास तौर पर परिलक्षित होता है.
इस सफल और अनुकरणीय प्रस्तुति के लिए हृदय से बधाई और शुभकामनाएँ.
सादर
आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया से कलम को हौसला मिला है, हृदयतल से सादर आभार आ० डॉ प्राची जी.
कितनी बार ज़िंदगी में ऐसा होता है जब अनजाने ही छाया और सुकून देने वाले कारणों को ही जड़ से मिटा कर मनुष्य काटों को पोषण देता है... और उफ़ कभी तो जान बूझ कर भी ..
इंगितों के माध्यम से करारा व्यंग करते हुए बहुत ही सार्थक लघुकथा प्रस्तुत की है आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय
हार्दिक शुभकामनाएं
आपकी सराहना का दिल से आभारी हूँ आ० राजेश कुमारी जी.
सत्य वचन आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, लघुकथा पर पुन: पधारने के लिए सादर आभार।
वाह वाह वाह ....थोड़े से शब्दों में कितना करारा व्यंग्य ,आज की शो बाजी ,अंधानुसरण पर ,बचपन में बड़ों से हम हमेशा यही सुनते थे की घर में काँटों का पेड़ नहीं लगाते शुभ नहीं होता ,किन्तु आज की क्या कहें ,उल्टी मति गंगा के प्रवाह को भी उल्टा कर दें.
मज्झ बेच के घोड़ी लई
दुद्ध पीणों गए लिद्द चक्क्णी पई हाहाहा बिलकुल सही है
बहुत प्रभावशील लघु कथा हुई ,हार्दिक बधाई आपको आ० योगराज जी
आदरणीय योगराज भाईजी,
आजकल ( आधुनिकता के चक्कर में ) "केक्टस" ही "खास" हो गया है , बड़े- बड़े मकान और बंगले देखिये। पेड़ तो आम आदमी की तरह बेचारा और कटने को मज़बूर है। कई पेड़ कटते हैं तब जाकर एक बंगला बनता है और उसे केक्टस से सजाकर खूबसूरत बनाया जाता है। इसी अर्थों में कहा था... सादर
आपकी सराहना के लिए हार्दिक आभार आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी. लेकिन मेरी लघुकथा में तो "ख़ास" को बेहद "आम" और बेहद "नाकारा" चीज़ को बेहद "ख़ास" बनाने की कवायद हो रही है.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online