सपनो का गाँव,
पीपल की छावो,
नदी का वह तट ,
नहाती जहाँ झट -पट
किनारे के लोग कभी
नहीं देखते थे एकटक .
बदल गए वो भाव
बदल गया गाँव,
झूमर औ गीत गए
रिश्ते अब रीत गए
लक्ष्मी जब भाग गई
आँखों की लाज गई
अब दीदे हुए बेशर्म
गाँव का माहौल गर्म
आतंक, भूख , भय
राजनीती देती प्रश्रय
सुख गए अब खेत,
माटी बन गई रेत,
भागे सब शहर को
कौन करे अब सेत.
पसर रहा है मौन
जिम्मेवार है कौन?
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय प्रकाशजी.. ऐसा आपऔर हम क्या छन्दशिरोमणि तुलसीदास तक कहते पाये जाते हैं -
न जानामि योगं जपं नैव पूजां.. नतोहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ...
यानि, मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही.. हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ..
नमन..
आ० सौरभ जी,
आपका सचेतक मिला पर मेरा चेतन संज्ञान ले पाये तब बात बने,मैं यथासंभव प्रयत्न करता रहूँगा.
"पूजा की विधि नहीं जानता, फिर भी नाथ चला आया". सादर.
कविताकर्म के लिए बधाई, आदरणीय. एक सार्थक प्रश्न का विन्यास गढ़ती इस रचना के होने पर हार्दि शुभकामनाएँ.
वैसे, अब अपेक्षा है कि प्रस्तुतीकरण के प्रति भी हम सचेत हों.
शुभ-शुभ
आ० आशुतोष जी, इस रचना पर आपने भेजी बधाई, बहुत धन्यवाद सह अभिनदंन.
प्रिय अनंत जी, आपको रचना पसंद आयी और आपने भेजी बधाई,
आपको बहुत धन्यवाद सह आभार
आदरणीय विजय जी वर्तमान परिदृश्य में हो रही तबाही का मंजर आपने शसक्त रचना के माध्यम से किया इसके लिए तहे दिल बधाई सादर
आदरणीय चिंतनीय विचारणीय सत्य कहा है आपने बहुत ही सशक्त प्रस्तुति आदरणीय हार्दिक बधाई स्वीकारें.
आ० संतलाल करुण जी,
रचना के भावो आपको अच्छे लगे और आपने साधुवाद दिया.आपका अभिनन्दन सह आभार.
आदरणीय शर्मा जी,
आज के ग्रामीण यथार्थ को आप ने व्यंग्य-कविता के माध्यम से संक्षेप में कह दिया है---
"किनारे के लोग कभी
नहीं देखते थे एकटक."
***
"अब दीदे हुए बेशर्म
गाँव का माहौल गर्म
आतंक, भूख , भय
राजनीती देती प्रश्रय
सुख गए अब खेत,
माटी बन गई रेत,"
... सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,
आपने सराहा, मान दिया ,अहोभाग्य हमारे.
अकिंचन का आभार सह अभिनन्दन स्वीकारें.
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