कुछ भी कह लो मित्र तुम , विष जब आये काम
सिर्फ दोष अपने कहो , क्यों होते हैं आम
कौन काम को देख के , अब देता है दाम
थोड़ा मक्खन, साथ में , है जो सुन्दर चाम
सूर्य समय से डूब के , खुद कर देगा शाम
नाहक़ बदली हो रही , हट जा, तू बदनाम
सबकी मंज़िल है अलग , अलग सभी के धाम
फिर क्यों छोड़ा साथ वो , पाता है दुश्नाम
हवा रुष्ट आंधी हुई , धूल उड़ी हर गाम
कितने नामी के हुये , धूमिल सारे नाम
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राम भाई , आपका बहुत आभार |
सुन्दर दोहे हुए है आदरणीय। । हार्दिक बधाई आपको
आदरणीय आशुतोष भाई , आपका बहुत आभार ।
आदरणीय प्रदीप कुशवाहा भाई , आपका शुक्रिया ।
आदरणीय जितेन्द्र भाई , आपका आभार ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी, दोहे बिन्दुवत नही हो पाये इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूँ , मै सुधरने और रचना को और सुधारने का हमेशा प्रयास करते रहता हूँ , आशा है आगे कुछ अच्छा कह पाउँ । जो कुछ आपको अच्छे लगे उसके लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय सौरभ भाई , आपकी बताई हुई गलतियाँ सर आखों पर , कुछ तो गलती एक ही तुकांतता पर पाँचो दोहे कहने की कोशिश के कारण हो गई , और कुछ नासमझी से । मै सुधारने की कोशिश जरूर करूँगा , शायद भाव सुधारने के लिये एक ही तुकांतता की ज़िद छोड़नी पड़े । आपकी मूल्यवान प्रतिक्रिया के लिये आपका बहुत आभार । अगर इसी तुकांतता मे सुधरने की गुंजाइश आपको दिखे तो जरूर बतायें , मुझे अतीव प्रसन्नता होगी ।
सूर्य समय से डूब के , खुद कर देगा शाम
नाहक़ बदली हो रही , हट जा, तू बदनाम..बेहतरीन दोहे पढ़कर आनद आ गया ..आदरणीय भाईसाब आपको ढेर सारी बधाई सादर
सीखने का एक अवसर प्राप्त हुआ आभार .सादर
बहुत बहुत सुंदर दोहावली पर बधाई आदरणीय गिरिराज जी
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