“भाभी, अगर कल तक मेरी राखी की पोस्ट आप तक नहीं पँहुची तो परसों मैं आपके यहाँ आ रही हूँ भैया से कह देना ” कह कर रीना ने फोन रख दिया|
अगले दिन भाभी ने सुबह ११ बजे ही फोन करके कहा, "रीना राखी पहुँच गई है ”
"पर भाभी मैंने तो इस बार राखी पोस्ट ही नहीं की थी !!! "
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
जी दीदी .मैं आपकी दुहरी मानसिकता वाली बातों से पूर्णत: सहमत हूँ, कभी-कभी यही असंतुलन या संवादहीनता किसी तीसरे की भावनाओं को नही समझ पाता. और शायद वही ननद भी भाभी बनकर तैयार हो जाती है अगले रक्षाबंधन के लिए.
आपके स्नेहिल प्रतिउत्तर हेतु आपका आभार दीदी :-))
हाँ जितेन्द्र भैया सही कहा आपने किन्तु बहुत फर्क है जो स्त्री रक्षाबंधन पर अपने भाई को देख फूली नहीं समाती वही स्त्री नन्द को इस पावन पर्व पर भी देखना भी नहीं चाहती ये कैसी दुहरी मानसिकता व्पाप्त हो गई आज सोचनीय है
आदरणीया राजेश दीदी. मेरा यह मानना है कि पैसा अपनी जगह है ख़ास तो एक-दो दिन के लिए आई बहन से जो भैया-भाभी के स्वतंत्र जीवन में एक दखल सा होता है. वो ही ख़ास कारण है इन मनमुटावों का
आपको लघुकथा पर पुन: बधाई
आ० लक्ष्मण भैया ये तो आज की और हर दूसरे तीसरे घर कहानी है रिश्तों पर पैसा भारी हो रहा है ..आपको ये लघु कथा प्रभावित की हृदय से आभारी हूँ ,शुभकामनायें |
आ० राजेश बहन यह तो मेरे घर की कथा कह डाली आपने . इस पर आपको जीतनी भी बधाई कहू वह काम ही है .जब हम रिश्तों को धन से तौलने लगते हैं तो यही हस्र होता है .
Saurabh mishra ji ,thanks a lot for your kind words in appreciation of this short story.
using Limited words you have explained unlimited feelings
आ० एस सी ब्रह्मचारी जी,आपने लघु कथा के अनुमोदन में जो पंक्ति उद्दृत की है उनमे बहुत सच्चाई है जो रिश्तों की अहमियत आज नहीं समझ रहा कल उसके जरूरत के वक़्त उसके पास कोई न होगा .पर आज की पीढ़ी को ये बात समझ नहीं आती |आपका बहुत बहुत शुक्रिया.सादर
आपकी लघु कथा पढ़ते समय कही पढ़ी निम्न पंक्तियाँ याद आ रही थी --- रिश्तों को निभाने के लिए समय निकालिए , वर्ना जब आपके पास समय होगा तब शायद रिश्ते ही न बचे हों । आज के युग मे रिश्ते कैसे बादल रहे हैं ! सोच सोच मन व्यथित हो जाता है ।
आ० विजय निकोर जी ,आपको ये लघु कथा पसंद आई सार्थक लगी मेरा लिखना सफल हुआ हार्दिक आभार आपका सादर
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