2122 2122 212
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जन्म से ही यार जो बेशर्म है
पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है
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छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ
साथ मेरे शेष अब तो कर्म है
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बोलने से कौन करता है मना
सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है
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चाँद आये तो बिछाऊँ मैं उसे
एक चादर आँसुओं की नर्म है
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शीत का मौसम सुना है आ गया
पर चमन की ये हवा क्यों गर्म है
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( रचना - 30 जुलाई 2014 )
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय मेरे कहे को मान देने के लिए सादर धन्यवाद.
चाँद आये तो बिछाऊँ उसके हित
एक चादर आँसुओं की नर्म है
हम्म .....
या ऐसे देखें -
चाँद पहलू में कभी आ जाय तो
एक चादर आँसुओं की नर्म है
यों, ऐसे शेर, आदरणीय, मनोदशाओं पर निर्भर करते हैं. अतः ऑप्शन कई हो सकते हैं.
आदरणीय भाई आशीष जी, गजल पर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार । आपने सही फरमाया कि आदरणीय सौरभ भाई की बात पर खूबसूरत मंजर पेश किया जा सकता है ।
आदरणीय भाई सौरभ जी , सादर अभिवादन । गजल पर विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद । संदर्भतः जिस पंक्ति के विषय में आपने लिखा है मेरा मन्तव्य भी आसुओ की नर्म चादर को चाँद के लिए बिछाना ही था । आपकी टिप्पणी के बाद मैंने इस पक्ति को पुनः गौर किया तो मुझे भी लगा कि यहाँ पर अर्थ कुछ उलझ सा गया है । अब इसमें संशोधन कर रहा हूं जिससे अर्थ जादा स्पष्ट हो सके ।
‘ चाँद आये तो बिछाऊँ उसके हित‘ क्या ऐसा करने से मंतव्य पूरा हो रहा है ? मार्गदर्शन करे आभारी रहूंगा ।
आदरणीया मीना बहन , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई विजय निकोर जी गजल पर आपकी उपस्थिति से इसका मान बढ़ गया । उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई रामसिरोमणिजी, गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार l
काफियों के लिए खास दाद आदरणीय लक्ष्मण जी !
आदरणीय सौरभ जी की कही बात से एक खूबसूरत मंजर पेश किया जा सकता है |
बढ़िया ग़ज़ल पर बधाई और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं !!
आदरणीय लक्ष्मण धामीजी, बधाई स्वीकारिेये इस बढिया ग़ज़ल पर. ग़ज़ल के शेर संयत और सक्षम हैं. काफ़िया को आपने बेहतर निभाया है.
अलबत्ता, आँसुओं की नर्म चादर पास होने के बावज़ूद चाँद को बिछाने की बात सोचना मुझे स्पष्ट नहीं हुआ. उस बिछी चादर पर चाँद को सुलाना या बिठाना तो समझ में आता है. आपके स्पष्टीकरण की चाहना है, आदरणीय.
इस ग़ज़ल के लिए पुनः बधाई.
सादर
बहुत खूब ..बधाई आप को
अच्छी रचना के लिए बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी
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